Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 53
________________ वाग्भटालङ्कारः। सौकुमार्यमाधोदाहरणं चारप्रतापदीपाजनराजिरेव देव वदीयः करवाल एषः । नो चेदनेन द्विषतां मुखानि श्यामायमानानि कथं कृतानि ।। १७ ॥ हे देव, एष त्वदीयः करयाल, प्रतापदीपाजनराजिरेत्र वर्तते । प्रताप एव दीपो दीप्यमानस्वात्तस्य प्रतापदीपस्य खड्दोऽबनरानिरवनश्रेणिरतिकृष्यत्वारसङ्गस्य । यथेच पूर्वोक्तं न मारनेनझेन विपला सम्मानि मामानानि झ्याम्मानमा नरन्ति कथं कृतानि | अत्रा. निष्ठुरसमाप्तवत्वात्सौकुमार्यम् ॥ १७ ॥ हे राजन् ! भापकी यह कृपाण तेअरूप दीपक से उत्पन काजल ही है। नहीं तो इसने विषियों के मुख को काला कैसे का डाला ! विमणी- इस श्लोक में कवि ने 'करवाल की कठोरसा का वर्णन किया है, अतः उस फर्कश शब्दों का प्रयोग ही करना चाहिये था। किन्तु वह कठोर से कठोर वर्गों की सहायता से भी कृपाण की कठोरगा को नहीं बता सकता। इसीसे उसमे विवश होकर सभी कोमल वणों का आश्रय लिया है। इससे कृपाण की कठोरता स्पष्ट प्रतीत हो जाती है। कोमल पणों के प्रयोग से यहाँ पर 'सौकुमार्य' नामक गुण है ॥ १७ ॥ गुणरमीभिः परितोऽनुविद्धं मुक्ताफलानामित्र दाम रम्यम् । देवी सरस्वत्यपि कण्ठपीठे करोत्यलकारतया कवित्वम् ॥ १८ ॥ अमीमिरीदायर्यादिभिः परितः समन्ततोऽनुविन व्याप्तं कवित्वं देवी सरस्वत्यपि अलकारतया करोति मुक्ताफलानां दामेव । यथा मुक्ताफलानां मालालंबारतया कण्ठपीटे योषया क्रियते सा परिती गुणैरनुविधा मनसि तथा कवित्वमलकारतया कण्ठपी क्रियते । अतोऽलङ्काराषसरस्वतस्तानेव नामतः हद ॥ १८ ॥ इति वाग्मटालकारीकायां सिंहदेवगणितायो तृतीयः परिच्छेदः । ---CORROC----- देवी सरस्वती (अथवा वाणी) उपयुक औदार्यादि गुणों से सम्यक रूपेण गुथे हुए काम्य को मोतियों के दानों से पिरोई हुई माला की भाँति आभूषण रूप से अपने कण्ठ में धारण कर लेमी हैं (अर्थात् ऋषि की वाणी गुणसम्पन्न निर्दुए काष्य को ही अङ्गीकार करती है, दूपिस काम्य को नहीं), १८ ६ ___॥ नृमीय परिच्छेद समास ॥ ..

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