Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 43
________________ २८. वाग्भटाचङ्कारः । स चासौ देवश्व मानसीकः पलानदेवो ब्रह्मा तस्यासनं कमलं तद्वन्तत्सचे विशिष्टे लोचने यस्य स जिनो वो युष्माकं तमोरिपुषिपश्चारिमियां त्रिशतु तमोरिपुः सूर्यस्तस्य विपक्ष-रास्तस्यारिविष्णुस्तस्य प्रिया लक्ष्मीस्तो दयात् भत्र शब्दाभ्येऽस्तोकस्वमेव दोषः । 'अप्पक्खर मइत्थं एवं न दोषः । शब्दाल्पत्वेऽर्थे बहुलता गुणाय भवति ।। २१ ।। मानसरोवर में निवास करने वाला पक्षी ( हंस ) जिसका वाहन है उन ( भाजी ) के आसन ( कमल) के समान होयनों वाले ( अर्थात् कमलनमन जिनदेव ) आप लोगों को अन्धकार के शत्रु (सूर्य) के विपक्षी ( राहु ) के शत्रु (विष्णु) की प्रिया (दमी ) अर्थात् श्री सम्पत्ति प्रदान करें । टिप्पणी- इस श्लोक में दो लम्बी-लम्बी पदावलियाँ हैई-एक है 'मानलोक:पतधान देवासन विलोचन' और दूसरी 'तमोरिविपारिप्रियाम' । इनमें प्रथम, का अर्थ है कमलनयन और दूसरी का लक्ष्मी । ये अर्थ शब्दावली की अपेक्षा अध्यस्त छोटे हैं। अतः शब्द और अर्थ में परस्पर संतुलन न होने के कारण आचार्यों ने इसमें 'असम्मित' नामक दोष माना है ॥ २३ ॥ अपक्रमं L भवेद्यत्र । यथा भुक्त्वा कृतस्नानो गुरून्देवांश्व वन्दते ॥ २२ ॥ यत्र वाक्ये प्रसिद्धक्रमलङ्घनं भवेत् तद्रपक्कनमुच्यते अपगतः क्रमी यस्मात्तदुपक्रममु च्यते । तथादौ स्नानं ततो देवन्द्र ततो गुरुनमस्करणं ततो भोजनमित्यादिक्रमोऽश्रममः ॥ fafe कार्यों के पूर्वापर क्रम की छोकप्रसिद्ध मान्यता का उल्लंघन करके जहाँ पर क्रम में कुछ उलट-फेर कर दिया जाता है, वहाँ पर 'अपक्रम' नामक दोष माना जाता है । यथा ( वह ) भोजन करके स्नानोपरान्त गुरुजनों एवं आचार्यों की वन्दना करता है । " टिप्पणी-- लोकाचार के अनुसार सर्वप्रथम स्नान करना चाहिये, फिर गुरु और देवताओं की वन्दना और तत्पश्चात् भोजनादि अन्य खौकिक कर्म, परन्तु यह कवि ने इस क्रम के विरुद्ध सर्वप्रथम भोजन, तत्पश्चात् स्नान और गुरु तथा देवताओं की बन्दना करना वसलाया है। अतः यहाँ पर 'अपक्रम' दोष मानना चाहिये ॥ २२ ॥ छन्दः शास्त्र विरुद्धं यच्छन्दोभ्रष्टं हि तद्यथा । स जयतु जिनपतिः परब्रह्म महानिधिः ॥ २३ ॥ यद्वाक्यं छन्दःशाल विरुद्धं तच्छन्दोभ्रष्टं कश्यते तमेत्युदाहरणे स निनपतिर्भवतु विजयतां परब्रह्मणो महानिधानं स जयतु इत्यय छन्दोभङ्गः । आषादक्षराक्षगणस्य पतनादनुष्टुभ्क्षक्षणं नास्ति । तथा चोकम् ' नाथानसी स्वाताम्' इत्यादि । अधिकारस्तु तत्र वृतरावरच्छन्दसि विल्कनी इति ॥ २२ ॥ E 5 -

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