Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 46
________________ द्वितीयः परिच्छेदः । जलक्रीडायातं मरुसरसि बालद्विपकुलं मदेनान्यं विध्यन्त्यसमशरपातैः प्रशमिनः ॥ २८ ॥ यथा प्रशमिनः क्षमापराश्चैत्रस्य चैत्रमासस्य भवेशे मार्तण्डे सूर्य प्रचण्डे सति मरुसरसि मरुस्थलोसरोवरे जलकोडाया पानीयको डार्थमागतं मरेनान्धं बाळ द्विपकुलं कलभसमूह असमशरपातै विषमवाणप्रकारं त्रिष्यन्ति । किंभूते चैत्रप्रवेशे । स्फुटकुटनराजीस्मितदिशि स्फुटाः प्रकटाः कुटजास्तेषां राजी श्रेणिस्तया स्मिता दसिता दिशो यत्र प्रवेशे । किंभूते मार्तण्डे । हिमकणसमझे एक स्मिता रिसाव कुटज मवन्ति, न बसन्ते इति कालविरुद्धम् । मार्तण्टे दिभंशीतलता इति द्रव्यविरुद्धम् । मस्सरसि जलकीढा इति देशविरुद्धन् । बालद्विपान मदान्धतेत्यवस्थाविरुद्धम् 1 प्रशमिनो विष्यन्तीत्यागमविरुद्धम् । यत्र तु विशिष्टं कारणं तत्र न दोषः । यथा ३१ 'तरिनारीनयनाश्रुवारिमिनंरेन्द्र निर्मूलित पचत्रलिभिः । सरांसि सत्कज्जलक माविलान्युचैर जायन्त मरुस्थीष्वपि ॥' यादि भदोषः । एवं सर्वत्र भावनीयम् ॥ २८ ॥ प्रफुलिस मकिापति से सुशोभित दिशाओं से युक्त चैत्र मास के आगमन पर हिमकण के समान उष्ण सेजवाले प्रचण्ड सूर्योदय के समय मरुभूमि के सरोवरों में जकीवा के हेतु आये हुये मतवाले हाथियों के बच्चों को सदैव शान्त - रहने वाले ( मुनिजन ) विषम शरों से बेधते हैं । टिप्पणी- उपर्युक्त श्लोक में चैत्र मास में सूर्य की प्रचण्डका समम विरुक्ष, मरुभूमि में सरोवरों का होना देशविरुद्ध, हाथियों के वर्षों का मदान्ध होना अवस्थाविरुद्ध तथा तीक्ष्ण ग्राणों से मुनिजनों के द्वारा हाथी के बच्चों को मारना शास्त्रविरुद्ध है । इसीसे यह काव्य दूषित हो गया है ॥ २८ ॥ इति दोषविषनिषेकर कलङ्कितमुज्ज्वलं सदा विबुधैः । ऋविहृदयसागरोत्थितममृतमिवास्वाद्यते काव्यम् ॥ २६ ॥ 'विदुषैः सदा कविहृदयसागरोत्थितमनृतं देवेरास्वाद्यते इत्युक्तिलेशः ॥ २९ ॥ इति वाग्मटालङ्कार टीकायां सिंहदेवगणकृतायां द्वितीयः परिच्छेदः । Oaxeso ऋषियों के हृदय सिन्धु से निकले हुये दोषरूप विष से अकलङ्कित अमृततुल्य काव्य रस का पान विद्वज्जन सर्वे ॥ द्वितीय परिच्छेद समाप्त ॥ 14044b0 'मुक्त होने के कारण किया करते हैं ॥ ५९ ॥

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