Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 49
________________ ३४ वामदालङ्कारः। ऐसे पदों का प्रयोग किया गया है जिनसे प्रतीत होता है कि इस स्थान पर यही शब्द स्वाभाविक रूप से जाना चाहिम था। इन पदों के प्रयोग से अन्य में उरपा मधुरिमा से 'समता' नामक गुण माना गया है ॥६॥ फलैः क्लुप्ताहारः प्रथममपि निर्गत्य सदना दनासक्तः सौख्ये कचिदपि पुरा जन्मनि कृती। तपस्यमत्रान्तं ननु वनभुवि श्रीफलदले रखएडैः खण्डेन्दोश्चिरमकृत पादार्थमनसौ ॥ ७॥ कस्यापि धनिनो वर्णनमेतत् । असावनिर्दिष्टनामा कृती पुरजन्मनि पूर्वमवे क्वचिकुत्रापि मनु निश्चितं वनभुव फाननभूमौ श्रीफलदलविरबदलैः खण्डेन्दोहास्य पादार्चनमकृत चकार । कथम्भूतोऽसौ । सदनातहानिर्मत्य प्रथममपि फलैः कप्ताहारी रचितभोजनः । अत एव-सौख्येऽनासक्तः। अवान्तमम्वेदं यथा भवति तथा तपस्यन् तपः कुर्वन् । ततोऽनेनेशी लक्ष्मीः प्राप्ता । श्रय विमधिरूपसधिविसर्गलीपप्रभूतिबन्धाग्लानिकारणाभापादोज्ज्वल्यं तृतोयो गुणः ॥ ७ ॥ पूर्वजन्म के सुकृती उम (ध्यक्ति)ने जो केवल फलाहारी है तथा जो सुख में सनिक मी प्रासक नहीं है, घर से निकलकर वर-प्रदेश में निरन्तर नप करते ध्ये पूर्ण विश्वपत्री से शशिशेस्वर शिवजी के पानी की चिरकाल तक पूजा की। टिप्पणी-विरूद्ध सम्धि के त्याग से 'फल: क्लुप्ताहारः' में विसों के अलोप से और समानहीन होने से इस श्लोक में 'कान्ति' नामक गुण है ॥ ७॥ यदशेयत्वमर्थस्य सार्थव्यक्तिः स्मृता यथा । त्यसैन्यरजसा सूर्ये लुप्ते रात्रिरभूदिवा ॥८॥ युवर्थस्याशेयल तत्तच्छब्दसत्तया माझादप्रतिपादनेन बलात्कारार्थाप्राप्यत्वं अर्थस्य सुखेन गम्यत्वम् । अल्प बन्धेनापि तादृशाः शब्दाः प्रयुज्यन्ने यादृशः साक्षादर्थों लभ्यते सा अर्थव्यक्तिया । है नरेन्द्र, त्यान्यरजमा सथै लुम दिवसे रात्रिरभूत् । अब रात्रैः सूर्यलोपः सूर्यलोपस्य हेतू रजः रजसो हेतुः सैन्यमित्यर्थस्य खलभ्यत्वाशयानम् ॥ ८ ॥ जहाँ पर प्रर्थ को समझने में किसी तरह का विघ्न नहीं रहना वहाँ 'अर्थध्यहि गुण समझना चाहिये । यथा-आप की सेना के (गमन के) कारण जो धूलि छा गयी है लससे सूर्य छिप गया है और दिन रात्रि में परिणत हो गया है। टिप्पणीसूर्यास्त होने से रात्रि का आगमन स्वाभाविक है। इसको समासने के लिये किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। अतएव इस पन में 'मर्थम्याकि' भामक गुण है ॥ ८॥

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