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द्वितीयः परिच्छेदः। यदाक्यं वचनान्तरम्यासेन विच्छि शुटितं तत् खण्डितम् । जिनः स्वामी यो युस्मान्पातु इति वाक्य यमिन्द्रः स्तोतीति वाक्यान्तरेण विछिन्नत्वावद्धितम् ॥ १८ ॥ __ एक पाग्य के अन्तर्गत अन्य याक्यांश के भा जाने से प्रथम वाक्य में जहाँ विच्छेद उपक हो जाता है, वहा खपिद्धत' नामक दोष माना जाता है। यथा-थे जिनस्वामी जिनकी स्तुति सदैव हद भी करते रहते हैं, आप लोगों की रक्षा करें।
टिप्पणी-यहाँ पर थे जिनस्वामी श्राप लोगों की रक्षा करें-स वाक्य के बीच में "जिनकी स्तुति सदेव इन्द्र किया करते हैं। इस वाक्य के आ जाने से पूर्वोक्त वाक्य में व्यवधान उपस्थित हो जाता है। अतः यह 'स्खण्डित' नामक दोष का उदाहरण है ॥ १८॥
सम्बनिकरपरत्वे यस् हाम्वास्गो :
यथायः सम्पदंशाता देयात्तत्त्वानि वोऽर्हताम् ॥ १६ ॥ एकस्मिन्नेव वाक्ये सम्बन्यिवदाददूरबे सति यस्य परस्य वरद सम्बन्धि तत्रैव योज्यम् । तदूरत्वे सति ध्यस्तसम्बन्धगुच्यते । यथाबाईलामा यस्तत्त्वानि शाता वः सम्पद देगादिति मम्बन्धिपदानां यरे स्थापन तम् व्यस्तसम्बन्ध ज्ञेयम् ॥ १९॥
किन्हीं दो पदों में परस्पर-सम्माथी पदों के दूर-दूर रहमे पर 'व्यस्तसम्बन्ध" नामक दोष उत्पन्न होता है। यथा-आईतों में अग्रगण्य तत्वयेत्सा (जिम) देव भाप लोगों को सम्पति-धन-धान्य प्रदान करें। ___टिप्पणी-इस वाक्य में 'आधः' और 'बईताम् शन परस्पर-सम्बन्धी होते. हुए भी एक दूसरे से दूर हैं । अतएव यहाँ पर 'व्यस्तसम्बन्ध' दोष है ॥ १५ ॥
शब्दार्थों यत्र न तुलाविधृताविव सम्मितौ ।
तदसम्मितमित्याहर्वाक्यं वाक्यविदो यथा ।। २० ॥ यत्र बन्धे शम्झाौँ तुलाविभूतादिव न सम्मितौ । यथा तुला विश्रुतौ बन्यो चोः पार्श्वयोने नमतः, सदा सम्मिती । यत्र भन्दा बहवोऽर्थोऽल्पः, वाक्याविदस्तद्वाक्यमम्मितमाटुः ॥२०॥
जहाँ पर पारद और अर्ध संतुलित न हों (अर्थात् शब्द जाल तो दीर्घ हो किम्तु अर्थ छोटा हो) यहाँ पर विद्वान् लोग 'असम्मित' नामक दोष. बतलाते हैं ॥२०॥ उदाहरणमाइ--
मानसौकापतद्यानदेवासनविलोचनः ।
तमोरिपुत्रिपक्षारिप्रियां दिशतु यो जिनः ॥ २१ ।। मानने भोको गृहं यस्य पततः पक्षिणः स मानसौका पतम् ईसः, स एष यानं यस्य