Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 28
________________ प्रथमः परिच्छेदः । १३ तात्पर्य यह है कि 'ब' तथा 'थ' और '' तथा '' चित्रकाव्य में अनुस्वार और विसर्ग के कारण भी कोई ब्यावास नहीं पड़ता, अर्थात् अनुस्वार और विसर्ग की उपस्थिति में भी चित्रकाम्य की हानि नहीं होती ॥ २० ॥ अथ कमैणोदाहरणानि - [ तत्र ] यमके बोल्योरभेदो यथा में भेद नहीं माना जाता। समान ही समझे जाते हैं। शङ्कमानैर्महीपाल कारागारबिडम्बनम् । त्वरिभिः सपत्रीकैः मितं बहुविडम्बनम् ।। २१ ।। महीपाल क्षितिपाल, स्वद्वैरिभिर्वनं खितम् । किंविशिन् । बहूनि विद्यानि विलानि सर्पदेर्विवराणि यत्र तत् सह पश्चभिर्वर्तन्त इति सपक्षीकास्तैः । किं कुर्वाणैः । शङ्कते इति शङ्कमानास्तेः । किं कर्म तब कारारूपे भगारे विम्ब गुतिगृहकदर्थनमित्यर्थः । कारा Treaगारं चेति कर्मधारयः । अत्र लोके यमग्रालंकृते विमनं वहु विलम्वनमिति वयोव्योवा मेरः ॥ २१ ॥ के असं हे राजन् ! आप के शाकुळ शत्रुओं ने अपनी पत्रियों को साथ लेकर ऐसे भावनिक हिंस जन्तुओं विचर है और जो कारागार के समान असामकों से भरपूर हैं। टिप्पणी--इस श्लोक के द्वितीय और चतुर्थ पादों में 'विडम्बनम' शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पर 'यमक' नामक कार है।'' और '' का अभेद इस तरह स्पष्ट है कि चतुर्थपाद में प्रयुक्त 'बहुविडम्बनम्' शब्द वास्तव में 'बम' है, किन्तु 'यमक' के लिये 'ल' ही 'ड' मान लिया गया है ॥ २१ ॥ यदी यथा त्वया दयाद्वैण विभो रिपूणां न केवलं संयमिता न बालाः | वियोगिनी भिर्मुहुर्महीपात विधूसराङ्गाः ।। २२ ।। तत्कामिनीभिश्च दे स्वामिन्, रिघूणां बालाः शिशवो न केवलं स्वया न संयमिताः न केवलं खया न बज्राः । बन्दीला इत्यर्थः । किंतु तेषां रिपूर्ण कामिनीभिरपि वाला न संयमिताः । अत्र बालाः केशा न बज्रा इत्यर्थः । लया दयार्द्रेण सता न संयमिताः तत्कामिनीभिद्य विभोगि नीभिः सतीभिर्न बद्धा इति । बालाः शिशवी नालाच केशाः । किविशिष्टाः । मुमंदीपाल विधूसराङ्गाः। मुटुरंवार मां पातेन पवनेन विधूसर विशेषेण धूलिनिथितं अङ्गं येषां तै तथा । अत्र बालबालशब्दोत्रयोरैक्यम् ॥ २२ ॥ हे राजन् ! दया-द्रवित मापने केवल शत्रुओं की स्त्रियों को ( अथवा बालकों को) नहीं बाँधा, यह नहीं, अपि तु बिरइव्यथित शत्रुतियों ने भी पुनः पुनः धूलि - धूसरित होने वाली अपनी केशराशि को नहीं बाँधा ।

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