Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 19
________________ ४ वाग्भटालङ्कारः । ( उपमादि ) अलंकार ( वैदर्भी आदि) रीतियों और ( श्रृंगार आदि ) मदरसों को भी स्पष्ट रूप से विद्यमान रहना - टिप्पणी- मम्मट आदि काव्यशास्त्र के आचार्यों ने 'काम्यं ससेऽर्थकृते विदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥' यह काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है, किन्तु क्षाचार्य वाग्भट काव्य का एकमात्र उद्देश्य कीि मानसे हुए प्रतीत होते हैं ॥ २ ॥ छत्र कवित्वस्योत्पसचे सामग्रीमुपदिशा--- प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम् । भृशोत्पत्तिकृदभ्यास इत्याद्यकविसङ्कथा ॥ ३ ॥ 'सर्व हि वाक्यं सावधारणमामनन्ति इति न्यायात् प्रतिभैव तस्य काव्यस्य कारणं हेतुर्भवति । त्रप्रकाशालिनी बुद्धिः प्रतिमा 'बुद्धिर्भवनवोन्मेषशालिनी प्रतिमा मता' इति वचनात् । ननु यदि प्रतिभैव कान्योत्पतेनं तथा व्युत्पत्तिः किं करोति । उच्यते— तस्य काव्यस्य प्रतिभया जन्यमानस्य व्युत्पत्तिभूषणमलङ्कारो भवतीत्यर्थः । अभ्या सस्तु पुनःपुनस्तदा सेवन लक्षणस्तस्य काव्यस्य भृशमुत्पति करोति भृशोत्पत्तिद्रव । अभ्यसने हि सतः स्थैर्यानेयोगातिर्विलम्बकाव्योत्पत्तेः । एवं प्रतिभाव्युत्पत्त्यभ्यासानां श्रयाणामपि स्वस्वविषयः पार्थस्येन प्रदर्शितः । इति पूर्वोकप्रकारः पुराणकवीनां कधीपदेशः ॥ ३ ॥ प्राचीन कवियों का मत है कि प्रतिभा काम्पोत्पत्ति का हेतु है, व्युत्पत्ति से उस ( काव्य ) में शोभा का आधान होता है और अभ्यास से श्रीघ्र ही काव्य--- रचना सम्भव होती है ॥ ३ ॥ अथ अन्धकारः प्रतिभा व्याख्यातुमाह प्रसन्न पदन व्यार्थयुक्त्युद्बोधविधायिनी । स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धिः प्रतिभा सर्वतोमुखी ॥ ४ ॥ प्ररुनान्यकिष्टानि यानि पदानि तथा नव्याभिनवा पार्थयुधि । ततः प्रसन्नप दानि च नन्यार्थयुक्ति प्रसन्न पदनन्यार्थयुक्तस्तासामु उद्घासन्तं विदधतीत्येवंशीला स्फुरतीला सर्वतो मुर्ख यस्थाः सा तथा । सर्वव्यापिनी सर्वाङ्गीणा चेत्यर्थः । एवंविवोत्तम कवेर्बुद्धिः प्रतिभा प्रोच्यते ॥ ४ ॥ कवि की उस बुद्धि को प्रतिभा कहते हैं जो सर्वसंचरणशीला हो ( जिससे कचि सूक्ष्मातिसूचम सभ्यों की कल्पना भी सहज ही कर सके ), जो कोमलकान्तपदावली को इस प्रकार सुनकर रख वे जिससे नवीन एवं चमत्कारपूर्ण अर्थ की उद्भावना हो सके और जो स्फुरणशीला भी हो ( जिससे सकवि की रचना में रख भर जाये ७४ ॥

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