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अस्वाध्याय हो जाता है। जैसे हड्डी के दिखाई देने पर १। मांस के समीप होने पर २. रुधिर के समीप होने पर ३. वृत्तिकारों ने ६० हाथ के आस-पास उक्त चीजें पड़ी होने पर अस्वाध्याय माना है। अशुचि (मल-मूत्रादि) के समीप होने पर ४. श्मशान के पास होने पर ५. चन्द्रग्रहण के होने पर ८-१२-१६ प्रहर पर्यन्त ६. सूर्यग्रहण होने पर ८-१२-१६ प्रहर पर्यन्त ७. किसी बड़े राजा आदि अधिकारी की मृत्यु हो जाने पर उनके संस्कार पर्यन्त अथवा अधिकार प्राप्त होने तक शनैः-शनैः पढ़ना चाहिए ८. राजाओं के युद्ध स्थान ६. उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जैसे किसी कबूतर या चूहे को मार दिया गया हो तथा १०० हाथ के आस-पास मनुष्य आदि का शव पड़ा हो, तब भी स्वाध्याय न करना चाहिए १०। एवं २८ ।
- चार महाप्रतिपदाओं में भी स्वाध्याय न करना चाहिए। जैसे आषाढ़ शुक्ला पूर्णमासी और श्रावण प्रतिपदा २, आश्विन शुक्ला, पूर्णमासी तथा कार्तिक प्रतिपदा ४, कार्तिक शुक्ला-पूर्णमासी तथा मार्गशीर्ष प्रतिपदा ६, चैत्र शुक्ला पूर्णमासी और वैशाख प्रतिपदा ८ । सूर्योदय से एक घड़ी पूर्व तथा एक घड़ी पश्चात् एवं सूर्यास्त से एक घड़ी पूर्व तथा एक घड़ी पश्चात्, मध्याह्न के समय तथा अर्धरात्रि के समय भी पूर्ववत् स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। किन्तु दिन के प्रहर और पश्चिम प्रहर तथा रात्रि के प्रथम प्रहर और पिछले प्रहर में अस्वाध्याय काल को छोड़कर अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए। इस प्रकार ३२ प्रकार के अस्वाध्याय काल को छोड़कर स्वाध्याय करना चाहिए। तथा निशीथ सूत्र के १६वें उद्देश्य में यह पाठ है
“जे भिक्खू चउसु महापडिवएसु सज्झायं करेइ, करतं वा साइज्जइ, तं जहा–सुगिम्हिए पाडिवए, आसाढ़ी पाडिवए, भद्दवए, कत्तिए पाडिवए।"
इनका अर्थ भी पूर्ववत् है, किन्तु इस पाठ में भी भाद्रपद ग्रहण किया गया है। सो भाद्रपद-शुक्ला पूर्णिमा और आश्विन कृष्णा प्रतिपदा, इस प्रकार दो दिनों की वृद्धि करने से ३४ अस्वाध्याय काल हो जाते हैं, अतः इनको छोड़कर ही स्वाध्याय करना चाहिए । व्यवहार सूत्र के सातवें उद्देश्य में स्वाध्याय और अस्वाध्याय काल के विषय में वर्णन करते हुए उत्सर्ग और अपवादमार्ग दोनों को ही अवलम्बन किया गया है। जैसे- “नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वितिकिट्ठाए काले सज्झायं उद्दिसित्तए वा करित्तए |॥ १४ ॥ कप्पइ निग्गंथीणं वितिकिट्ठाए काले सज्झायं उद्दिसित्तए वा करित्तए वा निग्गंथणिस्साए || १५ ॥ नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असज्झाइए सज्झायं करित्तए ॥१६॥ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सज्झाइए सज्झायं करित्तए || १७॥ . नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अप्पणो असज्झाइयं करित्तए। कप्पइ णं अण्णमन्नस्स वायणं दलित्तए || १८॥ इन सूत्रों का भावार्थ केवल इतना ही है कि साधु या साध्वियों को अकाल में स्वाध्याय न
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 45 /स्वाध्याय