Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay
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माहणाणं ब्राह्मणों के लिए है, अत्तट्ठियं—अपने लिए ही, सिद्ध—बनाया गया है—निष्पन्न किया गया है, इह—इस यज्ञमण्डप में, एगपक्खं—एक पक्ष जो ब्राह्मण हैं, उन्हीं के लिए है, न—नहीं, ऊ वितर्क में, वयं—हम, एरिसं—इस प्रकार का, अन्न–अन्न, पाणं—पानी, दाहामु देंगे, तुझं तुमको, किं—क्यों तुम, इहं—यहां पर, ठिओऽसि खड़े हो? ___ मूलार्थ—यह संस्कार किया हुआ भोजन केवल ब्राह्मणों के लिए ही है, अतः अपने लिए ही बनाया गया है, अपिच इस यज्ञमण्डप में, एक पक्ष के निमित्त ही भोजन तैयार हुआ है, अतः इस प्रकार का अन्न और पानी हम तुझे नहीं देंगे, फिर तू क्यों यहां पर खड़ा है?
टीका ब्राह्मण कहते हैं कि हे भिक्षो! आप जिस कार्य के लिए यहां पर उपस्थित हुए हैं उसका होना कठिन है, अर्थात यहां से आपको भिक्षा नहीं मिल सकती, क्योंकि यह लवणादि पदार्थों से संस्कार किया हुआ भोजन केवल ब्राह्मणों के लिए ही है और यह भोजन हमने अपने लिए ही तैयार किया है, इसीलिए इस भोजन को ‘एक-पक्ष-भोजन' भी कहते हैं, अतः जो भोजन केवल ब्राह्मणों के लिए तैयार हुआ है वह बिना ब्राह्मण के ओर किसी को नहीं दिया जा सकता। इसके अतिरिक्त यह भोजन शास्त्रोक्त विधि से तैयार किया गया है, इसलिए भी यह भोजन तुमको नहीं मिल सकता, अतः तेरा यहां पर भोजन के निमित्त से खड़ा रहना व्यर्थ है तथा हमारे शास्त्र में शूद्र को दान, पाठ और हविष्य देने का निषेध भी किया गया है।
प्रस्तुत गाथा में जो ‘एकपक्ष' पद दिया गया है उसके देहली-दीप-न्याय से दो अर्थ किए जाते हैं, जैसे एक वर्ण के लिए तैयार किया गया भोजन एक पक्ष भोजन है और केवल शुद्ध ब्राह्मणों को भी एकपक्ष कहते हैं। 'आत्मर्थे भवं आत्मार्थिकं' जो केवल अपने लिए ही तैयार किया गया हो वही आत्मार्थिक कहलाता है, इसके आगे आने वाले 'सिद्ध' पद के साथ सम्बन्ध होने से प्रस्तुत वाक्य का यही अर्थ होता है कि जो केवल अपने लिए ही तैयार किया गया हो, वह आत्मार्थिक सिद्ध है। तात्पर्य यह है कि वह भोजन दूसरे के उपयोग में नहीं आ सकता, केवल ब्राह्मण ही उसका प्रयोग कर सकते
हैं।
ब्राह्मणों के उक्त प्रकार के उत्तर को सुनकर मुनि के रूप में वह यक्ष उनसे इस प्रकार कहने
लगा
थलेसु बीयाइं ववन्ति कासगा, तहेव निन्नेसु य आससाए । एयाए सद्धाए दलाह मज्झं, आराहए पुण्णमिणं खु खित्तं ॥ १२॥
स्थलेषु बीजानि वपन्ति कर्षकाः, तथैव निम्नेषु चाऽऽशंसया |
एतया श्रद्धया ददध्व मां, आराधयत पुण्यमिदं खलु क्षेत्रम् ॥१२॥ पदार्थान्वयः-थलेसु-स्थलों में खेतों में, बीयाइं बीजों को, ववंति–बीजते हैं, कासगा—किसान लोग, तहेव—उसी प्रकार, निन्नेसु निम्न स्थानों में बीजते हैं, आससाए—आशा से,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 416 | हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं ।
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