Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 430
________________ उसके अपने अधिकार में है। इसी आशय से राजकुमारी भद्रा ने उनको शाप द्वारा अथवा मुनि के अद्भुत तेज के द्वारा भस्म होने की संभावना प्रदर्शित की है । कहने का अभिप्राय यह है कि जिस व्यक्ति में उक्त प्रकार के गुण विद्यमान होते हैं, वह शाप तथा अनुग्रह में भी समर्थ होता है । उक्त में ये सब गुण विद्यमान हैं, इसलिए यह निग्रह और अनुग्रह करने में पूर्ण रूप से समर्थ है। उन अध्यापकों के प्रति राजकुमारी भद्रा ने जो कुछ कहा उसको मुनि रूप में भिक्षा के लिए खड़े हुए उस यक्ष ने भी सुना और उसके वचनों को यथार्थ सिद्ध करने के लिए उसने जो कुछ किया अब उसका दिग्दर्शन कराया जाता है— एयाइं तीसे बयणाई सोच्चा, पत्तीइ भद्दाइ सुभासियाई । इसिस्स वेयावडियट्ट्याए, जक्खा कुमारे विणिवारयंति ॥२४॥ एतानि तस्या वचनानि श्रुत्वा पल्या भद्रायाः सुभाषितानि । ऋषेर्वैयावृत्त्यार्थतायै यक्षाः कुमारान् विनिवारयन्ति ॥ २४ ॥ " पदार्थान्वयः – एयाई—– इन पूर्वोक्त, वयणाई — वचनों को, सोच्चा - सुन करके, पत्ती -पत्नी, भद्दाइ - भद्रा के, सुभासियाई – सुन्दर भाषणयुक्त, तीसे—उस (भद्रा के ), इसिस्स – ऋषि की, वेयावडियट्ठया—वैयावृत्त्य के लिए, जक्खा - यक्ष, कुमारे— कुमारों को, विणिवारयति - विशेष रूप से निवारण करते हैं । मूलार्थ - राजकुमारी भद्रा के उक्त सुभाषित वचनों को सुनकर उस ऋषि की सेवा में रहने वाले वे यक्ष उन कुमारों को निवारण करने लगे । टीका-पुरोहित सोमदेव की धर्मपत्नी सुभद्रा के सुभाषित वचनों को सुनकर मुनि की सेवा में रहे उस यक्ष ने उन कुमारों को हटा दिया। यहां पर 'जक्खा' यह एक वचन के स्थान में जो बहुवचन प्रयोग किया गया है वह यक्ष के अन्य समस्त परिवार का सूचक है, क्योंकि घर का स्वामी जिस पर श्रद्धा रखता हो उस पर उसका परिवार भी श्रद्धा रखने लग जाता है, अतः उक्त गाथा में बहुवचन प्रयुक्त हुआ है । इसके अनन्तर जो कुछ हुआ अब उसका वर्णन करते हैं— ते घोररूवा ठिय अंतलिक्खे, ऽसुरा तहिं तं जण तालयंति । ते भिन्नदेहे रुहिरं वमंते, पासित्तु भद्दा इणमाहु भुज्जो ॥ २५ ॥ ते घोररूपाः स्थिता अन्तरिक्षे ऽसुरास्तत्र तान् जनान् ताडयन्ति । तान् भिन्नदेहान्रुधिरं वमतः, दृष्ट्वा भद्रेदमाह भूयः || २५ || पदार्थान्वयः ——वे यक्ष, घोररूवा - भयानक रूप वाले, ठिय— ठहरे, अंतलिक्खे—-आकाश में, असुरा — असुर भाव से युक्त, तहिं – वहां पर, तं—उन, जण—जनों को, तालयंति—ताड़ते हैं, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 427 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं

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