Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 428
________________ नरिंद—राजा, देविंद—इन्द्र के, अभिवंदिएणं वन्दनीय, जेणामि—जिसने मुझे, वंता-त्याग दिया, इसिणा—जिस ऋषि ने, स—वह, एसो—यही है। मूलार्थ, देवता के अभियोग और प्रेरणा से राजा ने मुझे इस मुनि को दे दिया था, परन्तु इस मुनि ने मुझे मन से भी नहीं चाहा तथा राजाओं, महाराजाओं और देवेन्द्र आदि से वन्दित जिस ऋषि ने मुझे त्याग दिया है, यह वही ऋषि है। ___टीका-भद्रा ने उन अध्यापकों के प्रति कहा कि आप लोग इस मुनि को नहीं जानते, यह वही ऋषि है जिसने मुझे भी त्याग दिया है। मैं स्वयं ही उसके पास उपस्थित नहीं हुई, किन्तु देवता की प्रेरणा से मेरे पिता ने मुझे इनके चरणों में उपस्थित किया था, तो भी इस ऋषि ने मुझे वमन कर दिया, अर्थात् मेरी और आंख उठाकर भी नहीं देखा। तात्पर्य यह है कि जैसे वमन किए हुए पदार्थ की ओर कोई भद्र पुरुष दृष्टि नहीं करता, इसी प्रकार मुझे भी इसने सर्वथा हेय समझा, अतएव यह ऋषि देव और मनुष्य सभी के द्वारा वन्दनीय है। इस कथन से भद्रा ने मुनि की अपूर्व विषय-त्यागवृत्ति और संयम-निष्ठा का वर्णन किया है। राजकुमारी भद्रा के कहने का अभिप्राय यह है कि आप लोग इस मुनि का जो इस प्रकार से अपमान कर रहे हो, यह सर्वथा अयोग्य है। इनके महत्त्व को आप लोग बिल्कुल नहीं जानते। जिसने मुझ जैसी सुन्दरी को भी अति तुच्छ समझकर त्यागते हुए अपनी संयम-निष्ठा की दृढ़ता का प्रत्यक्ष परिचय दिया हो, ऐसे निःस्पृह और शान्त महात्मा की अशातना करने से अधिक और कौनसा जघन्य कार्य हो सकता है? इसलिए आप लोगों को इस मुनिवर्य का अपमान करने के बदले इनकी अधिक से अधिक सेवा-भक्ति करनी चाहिए। इसी में आपका और मेरा तथा अन्य भद्र पुरुषों का कल्याण है। यहां पर 'मनसा' शब्द का अर्थ 'मन से भी' यही अर्थ संगत है। अब फिर इसी विषय की पुष्टि में कहते हैं____एसो हु सो उग्गतवो महप्पा, जिइंदिओ संजओ बम्भयारी | जो मे तया नेच्छइ दिज्जमाणिं, पिउणा सयं कोसलिएण रन्ना ॥२२॥ एष खलु स उग्रतपा महात्मा, जितेन्द्रियः संयतो ब्रह्मचारी | यो मां तदा नेच्छति दीयमानां, पित्रा स्वयं कौशलिकेन राज्ञा || २२ ॥ पदार्थान्वयः-एसो—यह, हु—निश्चय में, सो—वह, उग्गतवो—उग्र तप वाला, महप्पामहात्मा, जिइंदिओ जितेन्द्रिय, संजओ संयमशील, बंभयारी ब्रह्मचारी, जो—जिसने, मे—मुझे, तया—उस समय, नेच्छइ–नहीं चाहा नहीं ग्रहण किया, दिज्जमाणि—दी हुई को, पिउणा—पिता द्वारा, सयं—स्वयं अपने आप, कोसलिएण—कोशल देश के, रन्ना-राजा। .. मूलार्थ—यह मुनि कठोर तप करने वाला, महान् आत्मा, जितेन्द्रिय, संयत और ब्रह्मचारी है। , श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 425 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं

Loading...

Page Navigation
1 ... 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490