________________
के अनुसार उक्त मुनि ने भिक्षा को ग्रहण किया। यहां पर 'बाढ़' यह स्वीकार अर्थ में अव्यय है, यथा ‘बाढं’— एवमस्तु इत्यादि ।
भिक्षा ग्रहण करने के अनन्तर जब उसके द्वारा मुनि ने एक मासिक उपवास का पारणा किया तब उसके बाद वहां पर क्या हुआ, अब इसी विषय का वर्णन करते हैं ।
तहियं गंधोदयपुप्फवासं, दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा । पहयाओ दुन्दुहीओ सुरेहिं, आगासे अहो! दाणं च घुट्ठं ॥ ३६ ॥ तत्र गंधोदकपुष्पवर्षं, दिव्या तत्र वसुधारा च वृष्टा । प्रहता दुन्दुभयः सुरैः, आकाशेऽहो ! दानं च घुष्टं || ३६ || पदार्थान्वयः—–—तहियं— उस समय, गंधोदय — गन्धोदक, पुप्फवासं – पुष्पों की वृष्टि, दिव्वादिव्य, तहिं – वहां पर, य-और, वसुहारा - द्रव्य – सुवर्ण की, बुट्ठा —– वर्षा हुई, पहयाओ – बजाईं, दुन्दुहीओ - दुन्दुभियां, सुरेहिं-- देवताओं ने, आगासे – आकाश में, च- पुनः, अहो दाणं - अहो दान, घुट्ठे- ऐसा घोषित किया गया।
मूलार्थ – उस समय गन्धोदक और पुष्पों की वर्षा तथा सुवर्ण की वृष्टि हुई और देवों द्वारा आकाश में दुन्दुभियां बजाई गईं तथा उक्त दान की महिमा का गान किया गया ।
टीका — उक्त मुनि ने जिस समय यज्ञ मण्डप में मासोपंवास का पारणा किया, उस समय देवों ने आकाश से सुगन्धित जल और पुष्पों की वर्षा की तथा वसुधारा - सुवर्ण की वृष्टि की तथा देवों द्वारा दुन्दुभियां बजाई गईं और प्रस्तुत दान की प्रशंसा की गई ।
योग्यपात्र में विशिष्ट श्रद्धा से अर्पण किया गया पदार्थ कितना महान फल देने वाला होता है तथा तपश्चर्यामय जीवन का आत्म शुद्धि के अतिरिक्त लोक में भी कितना विलक्षण प्रभाव होता है एवं शुद्ध बुद्धि से किया गया सुपात्र दान किस सीमा तक ऐहिक और पारलौकिक श्रेय का साधक होता है, इत्यादि बातों को प्रस्तुत गाथा में भावार्थ विशेष रूप से स्पष्ट किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत गाथा के भावार्थ से यह भी सहज ही में ध्वनित होता है कि दान करने से लक्ष्मी देवों के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होती है, अतः 'दान करने से लक्ष्मी क्षीण हो जाएगी' ऐसा संकुचित विचार दानशील पुरुष के हृदय में कभी नहीं आना चाहिए। जैसे कूप से जल निकालने पर वह खाली नहीं होता, किन्तु उसमें और शुद्ध, पवित्र जल आने लग जाता है, यही दृष्टान्त दान के विषय में भी जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि दान से लक्ष्मी की कमी नहीं होती, किन्तु वह प्रतिदिन बढ़ती है ।
उक्त मुनि के इस प्रकार के महात्म्य को देखकर अति विस्मय को प्राप्त हुए. वे अध्यापक लोग इस प्रकार कहने लगे
सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई । सोवागपुत्तं हरिएससाहुं, जस्सेरिसा इड्ढि महाणुभागा ॥ ३७ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 435 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं