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इति ब्रवीमि |
इति हरिकेशीयमध्ययनं संपूर्णम् ॥ १२ ॥ पदार्थान्वयः—एयं—यह पूर्वोक्त, सिणाणं स्नान, कुसलेहिं—कुशल पुरुषों ने, दिटें देखा है और यही, महासिणाणं—महास्नान है जो, इसिणं-ऋषियों के लिए, पसत्थं—प्रशस्त है, जहिं—जिस स्थान से, सिणाया-स्नान किए हुए, विमला—मल-रहित और, विसुद्धा विशुद्ध होकर, महारिसी–महर्षि लोग, उत्तम–उत्तम, ठाण–स्थान को, पत्ते—प्राप्त हो गए, त्ति—इस प्रकार, बेमि–मैं कहता हूं। (यह हरिकेशीय अध्ययन समाप्त हुआ।)
मूलार्थ यह पूर्वोक्त स्नान कुशल पुरुषों द्वारा भली प्रकार से देखा गया है और यही महास्नान ऋषियों के लिए प्रशस्त है, जिसमें स्नान किए हुए महर्षि लोग उत्तम स्थान को प्राप्त हो गए हैं, इस प्रकार मैं कहता हूं।
टीका—मुनि कहते हैं कि यह पूर्वोक्त स्नान कर्म-रज को दूर करने में समर्थ और • . कुशल तीर्थङ्करों के द्वारा दृष्ट है और यही महास्नान ऋषियों के लिए प्रशस्त कहा गया है। तात्पर्य यह है कि जिस स्नान को ब्राह्मणों ने उत्तम समझा है वह स्नान कर्ममल को दूर करने में समर्थ नहीं है, "किन्तु प्रस्तुत अध्यात्म-स्नान ही उत्तम और महास्नान है, अतएव इसी स्नान के द्वारा महर्षि लोग उत्तम स्थान-मोक्ष को प्राप्त हुए हैं।
यहां पर उत्तम स्थान से 'मोक्ष' ही अभिप्रेत है, तथा 'जहिं' में विभक्ति-व्यत्यय है, अर्थात् 'येन' के स्थान पर 'जहिं' इस सप्तम्यन्त पद का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए सर्वार्थसिद्धि टीका के कर्ता लिखते हैं कि
_ 'एवं च प्रशान्तेषु द्विजेषु यक्षेण प्रगुणीकृतेषु छात्रेषु धर्मदेशनया तान् प्रबोध्य मुनिः पृथिव्यां विहृतवान्' । ___ अर्थात् ब्राह्मणों को शान्त करके और यक्ष के द्वारा व्यथित हुए उन छात्रों को धर्म-देशना द्वारा प्रतिबोध देकर मुनि पृथ्वी पर विचरने लगे। ____ तात्पर्य यह है कि ब्राह्मणों की नम्रता से उस यक्ष ने उन कुमारों को छोड़ दिया और वे स्वस्थ हो गए।
इसके अतिरिक्त 'त्ति-बेमि' का अर्थ प्रत्येक अध्ययन के अन्त में पहले आ चुका है, उसी के अनुसार समझ लेना चाहिए।
द्वादशम अध्ययन संपूर्ण
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 446 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं
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