Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 463
________________ प्रस्तुत गाथा में जिस भाव को व्यक्त किया गया है उसका सारांश इतना ही है कि यद्यपि ब्रह्मदत्त विषयों में अति मूर्छित हो रहा है और इसीलिए वीतराग के धर्म में दीक्षित होने को वह दुखरूप समझ रहा है फिर भी पूर्व भव के स्नेह से और हित-बुद्धि से वह धर्मात्मा मुनि उसके प्रति निम्नलिखित उपदेश करने में प्रवृत्त हुए। इसमें मुनि की पर-हित-कांक्षा और दृढ़तर धर्म-निष्ठा का जो चित्र सूत्रकार ने उपस्थित किया है, वह वर्तमान समय के मुनिजनों के लिए अधिक मननीय है। अब उक्त मुनि के वचनों का ही उल्लेख किया जा रहा हैं सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नटं विडंबियं । . सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥१६॥ सर्वं विलपितं गीतं, सर्वं नृत्यं विडम्बितम् । सर्वाण्याभरणानि भाराः, सर्वे कामा दुखावहाः ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः सव्वं—सर्व, विलवियं विलापरूप, गीयं—गीत हैं, सव्वं—सर्व, नटं—नाटक, विडंबियं विडम्बना रूप हैं, सव्वे सर्व, आभरणा—आभूषण, भारा—भाररूप हैं, सव्वे सर्व, कामा—काम-भोग, दुहावहा–दुखों के देने वाले हैं। . मूलार्थ—सर्व गीत विलापरूप हैं, सर्व नाटक विडम्बना रूप हैं, सर्व प्रकार के भूषण भार रूप हैं ' और काम-भोग दुखों के देने वाले हैं। टीका—चित्त मुनि ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से कहते हैं कि हे राजन्! वास्तव में ये गीत जिनको तुम आनन्द के देने वाला समझ रहे हो मेरे को तो केवल विलाप रूप ही प्रतीत होते हैं। कल्पना करो कि किसी युवती स्त्री से अत्यन्त प्रेम करने वाले तथा भरण-पोषण करने वाले पति का देहान्त हो जाए और अभी तक उसके शव का दाह-संस्कार भी न किया गया हो, उस समय पति-वियोग से अत्यन्त दुखी हुई उस स्त्री को यदि कोई गीत सुनाए तो क्या वह गीत उसके आमोद का कारण होगा, अथवा विलाप का? ___ जैसे कोई बालक उन्मत दशा में गाता है तो उसका गान निरर्थक होता है, उसी भांति आपके ये गीत भी प्रयोजन-शून्य और सर्वथा निरर्थक हैं, इसी प्रकार आपके ये नाटक भी विडम्बना रूप ही है। जैसे किसी पुरुष में यक्ष आदि व्यन्तर के आवेश से शरीर का विकृति-पूर्ण संचालन होता है, अथवा जैसे कोई मद्यप नशे में धुत्त होकर कुचेष्टाएं करने लग जाता है, उसी प्रकार की यह नाटकीय चेष्टाएं हैं एवं आभूषण आदि पदार्थ भी एक प्रकार के शरीर पर निरर्थक बोझ जैसे ही हैं, जैसे कोई स्त्री मुलम्मे को स्वर्ण समझकर उसके आभूषणों को पहनती हुई मुलम्मा प्रतीत होने से उनको निरर्थक और भारभूत समझ कर फैंक देती है, उसी प्रकार ये स्वर्णादि के आभूषण हैं जो कि उतार कर फैंक देने योग्य हैं। अब रही बात काम-भोग आदि विषयों की, सो ये तालपुट विष के समान हैं, जैस वह देखने में सुन्दर और खाने में स्वादिष्ट होता है, परन्तु मारने में जरा भी विलम्ब नहीं करता, उसी प्रकार ये श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् ( 460 । चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं ।

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