Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 473
________________ यह प्रत्यक्ष, एयारिसं—ऐसा, फलं – फल प्राप्त हुआ, जं- जो, जाणमाणो वि – जानता हुआ भी, धम्मं— धर्म को – फिर भी, कामभोगेसु – काम-भोगों में, मुच्छिओ—मूर्च्छित हूं। मूलार्थ – उस निदान से निवृत्त न होने का यह प्रत्यक्ष फल हुआ कि मैं धर्म को जानता हुआ भी काम-भोगों में मूर्च्छित अर्थात् आसक्त हूं। टीका - चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने कहा कि 'हे मुने! जब मैंने काम भोगों से आकर्षित होकर निदान-पूर्वक कर्म करने का प्रयत्न किया था उस समय आपने मुझे हटाने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु मैं इस अशुभ निदान से नहीं हटा। उसका फल यह हुआ कि मैं श्रुत और चारित्र - धर्म को जानता हुआ भी काम-भोगों में अत्यन्त आसक्त हो रहा हूं, अतः सिद्ध हुआ कि अशुभ कर्म का फल शुभ कभी नहीं हो सकता । यद्यपि निदान कर्म भी कई प्रकार के होते हैं, तथापि जिन भावों से प्रेरित होकर वे किए जाते हैं उन्हीं के अनुसार उनका फल भी प्राप्त होता है। इस विषय को दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादन करते हैं नागो जहा पंकजलावसन्नो, दट्टु थलं नाभिसमेइ तीरं । एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा, न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो ॥ ३० ॥ नागो यथा पंकजलावसन्नः दृष्ट्वा स्थलं नाभिसमेति तीरम् । एवं वयं कामगुणेषु गृद्धाः नो भिक्षोर्मार्गमनुव्रजामः || ३० || पदार्थान्वयः – नागो –—–— नाग अर्थात् हस्ती, जहा -- जैसे, पंक― कीचड़ से भरे, जलावसन्नो — जल में फंसा हुआ, दट्टु — देखकर, थलं — स्थल को, नाभिसमेइ — नहीं प्राप्त होता, तीरं - तीर को, एवं — उसी प्रकार, वयं —हम, कामगुणेसु- – काम-भोगों में, गिद्धा – आसक्त हुए, भिक्खुणो–भिक्षु के, मग्गं—मार्ग को, न अणुव्वयामो — ग्रहण नहीं कर सकते । मूलार्थ - जैसे कीचड़ वाले जलाशय में फंसा हुआ हाथी निर्जल प्रदेश को देखकर भी तीर को प्राप्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार काम-भोगों में अत्यन्त आसक्त हुए हम लोग भी भिक्षु के मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते, अर्थात् साध्वाचार का पालन नहीं कर पाते । टीका - प्रस्तुत गाथा में काम-भोगों को दलदल के समान और उनमें आसक्ति रखने वाले को हस्ती के समान माना गया है तथा साधु-मार्ग को स्थल के सदृश बताया गया है, अर्थात् जैसे दलदल में फंसा हुआ हाथी स्थल प्रदेश को देखता हुआ भी उसे सहसा प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता, इसी प्रकार विषय-भोगों में अत्यन्त आसक्ति रखने वाले पुरुष साधु-धर्म की श्रेष्ठता को जानते हुए भी उसके ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो सकते । तात्पर्य यह है कि दलदल में फंसा हुआ हाथी वहां से निकलने का प्रयत्न तो बहुत करता है और चाहता है कि कीचड़ में से निकलकर स्थल प्रदेश में चला जाऊं परन्तु वह निकल नहीं सकता। ऐसे ही काम - भोगों में आसक्त पुरुष भी उनसे निकलने की कोशिश करते हैं परन्तु सफल - मनोरथ नहीं हो पाते। इसी आशय से चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने भी कीचड़ के. समान काम-भोगों निकलकर साधु-मार्ग के अवलम्बन में या उस मार्ग पर चलने में चित्त मुनि के श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 470 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं


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