Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 460
________________ पदार्थान्वयः – संभूय — हे संभूत! जाणासि – तू जानता है कि मैं, महाणुभागं - महाभाग्यवान् हूं, महिड्डिय——–महाऋद्धि वाला हूं और, पुण्णफलोववेयं - पुण्य फल से युक्त हूं, रायं हे राजन् ! . तहेव — उसी प्रकार, चित्तंपि — चित्त को भी, जाणाहि – जानो, य— और, इड्ढी – ऋद्धि, जुई— ि तस्सवि—चित्त की भी, ष्पभूया — प्रभूत थी । मूलार्थ — हे संभूत! जैसे तू जानता है कि मैं महा भाग्यवान् हूं और महासमृद्धि वाला हूं तथा पुण्यरूप फल से युक्त हूं, हे राजन् ! इसी प्रकार चित्त मुनि के पास भी जानो, उसके पास भी ऋद्धि और तिप्रभूतथी - बहुत थी । टीका— चित्त मुनि कहते हैं कि हे संभूत! जैसे तुम अपने आपको विशेष भाग्यशाली और ऋद्धि वाला समंझते हो उसी प्रकार चित्त को भी अर्थात् मुझे भी समझो, क्योंकि मुनि - जीवन से पूर्व मेरे घर में भी अपार ऋद्धि और समृद्धि थी । तात्पर्य यह है कि तेरे समान सर्व प्रकार की बाह्य समृद्धियों से मैं भयुक्त था, अर्थात् ये सब मुझे भी प्राप्त थीं । मुनि के इस कथन को सुनकर चक्रवर्ती ने कहा कि यदि तुम इस प्रकार के समृद्धिशाली थे, तो फिर दीक्षित क्यों हुए? अर्थात् भिक्षु क्यों बने ? अब मुनि उसके इस प्रश्न का उत्तर देते हैं महत्थरूवा वयणप्पभूया, गाहाणुगीया नरसंघमज्झे भिक्खुणो सीलगुणोववेया, इह जयन्ते समणोमि जाओ ॥ १२ ॥ महार्थरूपा वचनाऽल्पभूता, नरसंघमध्ये I यां (श्रुत्वा ) भिक्षवः शीलगुणोपपेताः, इह यतन्ते श्रमणोऽस्मि जातः ॥ १२ ॥ S पदार्थान्वयः—–—महत्थरूवा—–— महान् अर्थ वाली, वयणप्पभूया - अल्प अक्षरों वाली, गाहा—गाथा, अणुगीया – अनकूल गाई हुई, नरसंघमझे-नरों के संघ में, जं—जो, भिक्खुणी — भिक्षु, . सीलगुणोववेया - शील गुण से युक्त हैं, इह – इस जिन - शासन में, जयन्ते न करने वाले हैं, उसी गाथा को सुनकर, समणोमि — मैं भी साधु, जाओ – बन गया हूं। टीका - चित्त मुनि कहते हैं कि 'हे राजन् ! यद्यपि आपकी और मेरी लौकिक समृद्धि समान थी, तथापि मैंने मनुष्यों के समुदाय में एक मुनिराज के मुख से ऐसी गाथा को श्रवण किया कि जिसके अक्षर तो बहुत थोड़े थे, परन्तु अर्थ रूप से उसमें अनन्त द्रव्य और पर्यायों के ज्ञान का समावेश था और वह सूत्र रूप गाथा तीर्थंकर एवं गणधरों के द्वारा पहले गायन की जा चुकी है। वह गाथा 'अणु गीता' के नाम से प्रसिद्ध थी। जो संयमशील भिक्षु शीलगुणयुक्त होकर इस जिन- शासन में प्रयत्नशील , हैं, उनका उक्त गाथा में भली प्रकार वर्णन किया हुआ था, उसी गाथा को सुनकर मैंने भी संसार के इन तुच्छ पौद्गलिक सुखों का त्याग करके संन्यास व्रत ग्रहण कर लिया। तात्पर्य यह है कि मैंने किसी दुख से व्याप्त होकर दीक्षा अंगीकार नहीं की, किन्तु इन लौकिक सुखों की अपेक्षा विशेष, अधिक और अविनाशी मोक्ष-सुख की अभिलाषा से इनका त्याग किया है । ' श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 457 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं

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