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मंत्री और ब्रह्मदत्त के परामर्श के अनन्तर नगर के बाहर से उस लाक्षागृह तक एक गुप्त सुरंग खुदवाई गई और मंत्री ने ब्रह्मदत्त के पास उसकी सेवा के लिये अपने पुत्र को रख दिया ।
जब ब्रह्मदत्त उस लाक्षागृह में शयन करने के लिए गया, तब रानी ने उसे प्रासाद में सोया जानकर उस प्रासाद को आग लगवा दी, परन्तु उसकी सेवा में रहने वाले मंत्री -पुत्र ने राजकुमार ब्रह्मदत्त को उसी समय सावधान किया और सुरंग के रास्ते से निकलकर अपने सहित उसको उक्त संकट से बचा लिया। इसके अतिरिक्त राजा दीर्घ ने राजकुमार ब्रह्मदत्त को मारने के और बहुत से उपाय किए, परन्तु सब निष्फल गए।
राजकुमार ब्रह्मदत्त ने कुछ समय के लिए अपने नगर को छोड़कर विदेश जाने का निश्चय किया, तदनुसार वह विदेश यात्रा के लिए चल पड़ा। विदेश में वह अनेक राज - कन्याओं से पाणिग्रहण करके तथा अनेक राजाओं की सेना को साथ लेकर वापिस कांपिल्यपुर की ओर चल दिया। नगर में आते ही उसने राजा दीर्घ को मारकर अपना राज्य सम्भाल लिया। फिर अनुक्रम से उसे चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई जिनके प्रभाव से छः खण्ड पृथ्वी पर उसने विजय प्राप्त की और चक्रवर्ती पद को प्राप्त किया ।
किसी समय ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को नाटक देखते हुए देवलोक के नाटक का स्मरण हो आया, जिससे उसको जाति - स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। तब उसने अपने प्रिय भ्राता चित्त को पांच भवों तक तो अपने साथ ही देखा, परन्तु छठे भाव में वह उसको अपने साथ न देख सका । तब अपने भाई को मिलने के लिए और उसकी खोज के लिए उसने 'गोपदासौ मृगौ हंसौ मातंगावमरौ यथा' यह पद बना कर लोगों को सिखा दिया और साथ में यह भी कहा कि जो व्यक्ति इस श्लोक का उत्तरार्द्ध बना कर लाएगा उसको आधा राज्य दे दिया जाएगा।
तब उस प्रदेश के कवियों ने श्लोक का उत्तरार्द्ध बनाने के लिए अनेक प्रयत्न किये, परन्तु कोई भी यत्न सफल न हो सका । उस समय चित्त मुनि दीक्षा ले चुके थे और उनको अवधिज्ञान की प्राप्ति भी हो चुकी थी । अवधिज्ञान के द्वारा अपने भाई को चक्रवर्ती बना देखकर उसको मिलने की इच्छा से उग्र विहार करते हुए कांपिल्यपुर नगर के बाहर एक उद्यान में वे आ विराजे । उस समय उस उद्यान में एक कृषक कूप से पानी निकालकर खेत को दे रहा था, परन्तु जब वह पानी छोड़ता था तब वही आधा श्लोक बोलता था। तब उद्यान में विराजे हुए मुनि ने उसे बुलाकर पूछा कि तू इस श्लोक का आगे का आधा भाग क्यों नहीं पढ़ता ? यह सुनकर उसने कहा कि – “भगवन् ! कृपा करके आप ही इसे पूर्ण कर दीजिए !" तब उक्त मुनि ने 'एषा नौ षष्ठिका जातिरन्योऽन्याभ्यां वियुक्तयोः इस प्रकार उक्त श्लोक को पूर्ण कर दिया ।
श्लोक की पूर्ति होने पर वह कृषक ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के पास पहुंचा और उसने पूरा श्लोक सुनाया। श्लोक के उत्तरार्ध को सुनकर वह आश्चर्य चकित हो गया और विचार करने लगा कि क्या मेरा भाई यह कृषिकार बना है ? इस प्रकार का विचार करते ही वह मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। यह देखकर लोग उस कृषक को पीटने लगे। तब उसने कहा कि आप लोग मुझे क्यों मारते हैं,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 450 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं