Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 442
________________ कौनसा यज्ञ है जिससे पापों का नाश हो? तथा कुशल पुरुष जिसको अतिश्रेष्ठ तथा इष्ट फल के देने वाला कहते हैं। . ब्राह्मणों के प्रश्न करने का अभिप्राय यह है कि जब तक पहले वस्तु-तत्त्व का ज्ञान न हो जाए, तब तक उसका सम्यक् रीति से अनुष्ठान नहीं हो सकता, इसलिए वे मुनि के प्रति कहते हैं कि हम किस प्रकार का आचरण करें? अर्थात् कौनसा यज्ञ करें, जिससे पापों का नाश हो एवं वह कौनसा यज्ञ है कि जिसको उत्तम पुरुषों ने अतिश्रेष्ठ बताया है? इस प्रश्न में यज्ञ का स्वरूप और उसके अनुष्ठान की विधि ये दोनों ही बातें समाविष्ट हैं तथा प्रस्तुत गाथा में 'कहं चरे' यहां पर तिङ् प्रत्यय का व्यत्यय किया हुआ है, अर्थात् 'कहं चरेम' इस उत्तम पुरुष की बहुवचनात्मक क्रिया के स्थान में यह प्रयुक्त हुआ है। मुनि ने उक्त प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया छज्जीवकाए असमारभंता, मोसं अदत्तं च असेवमाणा । परिग्गहं इथिओ माण मायं, एयं परिन्नाय चरंतिदंता ॥४१॥ षड्जीवकायानसमारभमाणाः, मृषाऽदत्तं चासेवमानाः । - परिग्रहं स्त्रियो मानं मायां, एतत्परिज्ञाय चरन्ति दान्ताः ॥ ४१ ॥ पदार्थान्वयः-छज्जीवकाए—षट्जीवकाय के जीवों का, असमारभंता–समारम्भ न करते हुए, मोसं-असत्य, च-और, अदत्तं—चोरी को, असेवमाणा—सेवन न करते हुए, परिग्गहं—परिग्रह, इथिओ-स्त्रियों, माण—मान, मायं—माया, एयं—यह सब, परिन्नाय—भली भान्ति जानकर, चरंति आचरण करते हैं, दंता—जिन्होंने इन्द्रियों का दमन कर लिया है। .. मूलार्थ छह काय के जीवों का समारम्भ न करते हुए, असत्य और चोरी का सेवन न करते हुए तथा परिग्रह, स्त्री, मान और माया इन सबका भली-भान्ति त्याग करके इन्द्रियों का दमन करते हुए तुम विचरो, अर्थात् इस प्रकार आचरण करो। टीका ब्राह्मणों के प्रश्न का उत्तर देते हुए मुनि ने उनसे कहा कि छह काय के जीवों की हिंसा न करते हुए, असत्य, चोरी, परिग्रह स्त्रियों एवं क्रोध, मान, माया आदि कषायों का परित्याग ही नहीं, अपितु ज्ञ-परिज्ञा से उक्त बातों के फलाफल का विचार करके फिर प्रत्याख्यान परिज्ञा से जिन्होंने इनका त्याग किया है वे ही जीव यथार्थतः यज्ञ करते हैं। तुम भी उक्त गुणों को धारण करके ऐसे पवित्र यज्ञ का आचरण करो। ___ उक्त गाथा में मुनि ने अपने उत्तर से अहिंसा आदि पांचों महाव्रतों के सेवन और क्रोध आदि चारों कषायों के परित्याग का उपदेश करते हुए सात्त्विक यज्ञ के स्वरूप में उसके अधिकारी का स्वरूप बड़ी सुन्दरता से दर्शाया है। तात्पर्य यह है कि उत्तम पुरुषों ने जिस यज्ञ की प्रशंसा की है, अर्थात् जिस प्रकार के यज्ञ को वे अति श्रेष्ठ बताते हैं, उसके अनुष्ठान का अधिकार उन्हीं पुरुषों को है जिन में उक्त गुणों का समावेश हो । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 439 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं

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