Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 440
________________ सुइटें—सुयोग्य, न-नहीं, इस प्रकार, कुसला—कुशल लोग, वयंति—कहते हैं। मूलार्थ हे ब्राह्मणो! तुम क्यों अग्नि का आरम्भ करते हो? तथा पानी से बाहर की शुद्धि की गवेषणा क्यों करते हो? क्योंकि जो मार्ग केवल बाहर की विशुद्धि का है उसको कुशल लोग अच्छा नहीं समझते। ___टीका ब्राह्मणों को उपदेश देते हुए मुनि ने कहा कि आप लोग इस अग्नि का आरम्भ क्यों कर रहे हो? तथा जल के द्वारा केवल बाहर की शुद्धि की अभिलाषा क्यों कर रहे हो? क्योंकि जो मार्ग केवल बाहर की शुद्धि का है उसको कुशल-विचारशील-तत्त्ववेत्ता लोग अच्छा नहीं समझते। कारण कि इस बाह्यशुद्धि से आन्तरिक शुद्धि की कोई सम्भावना नहीं होती और आन्तरिक शुद्धि के बिना भाव शुद्धि का होना असम्भव है, इसलिए आत्म-विकास की इच्छा रखने वाले महानुभावों को बाह्य शुद्धि को गौण समझते हुए सर्व प्रकार से आन्तरिक शुद्धि को ही प्राप्त करना चाहिए। यहां पर इतना और भी समझ लेना चाहिए कि मुनि बाह्य-शुद्धि का निषेध नहीं करते और न ही उनका यह उपदेश है। उनके कथन का तात्पर्य तो यह है कि इस बाह्य शुद्धि से अन्तरंग शुद्धि की इच्छा रखनी भूल है, इसलिए जो व्यक्ति केवल बाह्य शुद्धि से आत्म शुद्धि का होना मानते या समझते हैं वे भ्रान्त हैं। उनका विचार तो ऐसा है जैसे किसी ज्वर-ग्रस्त पुरुष का स्नान करके ज्वर को उतारने का विचार हो, अर्थात् जैसे केवल स्नान कर लेने से ज्वर का उतरना दुस्तर है—अपितु ज्वर के बढ़ जाने की ही अधिक सम्भावना रहती है, इसी प्रकार बाह्यशुद्धि से आन्तरिक निर्मलता प्राप्ति की आशा करना भी केवल मनोरथ मात्र ही प्रतीत होता है। इस गाथा में आया हुआ 'किं' अधिक्षेपार्थक है। अब इसी विषय का उपपत्तिपूर्वक वर्णन करते हैं कुसं च जूवं तणकट्ठमग्गिं, सायं च पायं उदयं फुसंता । पाणाई भूयाई विहेडयंता, भुज्जो वि मंदा ! पकरेह पावं ॥३६॥ कुशं च यूपं तृणकाष्ठमग्निं, सायं च प्रातरुदकं स्पृशन्तः । प्रापिनो भूतान् विहेठमानाः, भूयोऽपि मन्दाः! प्रकुरुथ पापम् ॥ ३६॥ पदार्थान्वयः-कुसं-कुशा, च-और, जूवं यूप-यज्ञ-स्तम्भ, तण-तृण, कळं काष्ठ, अग्गिं—अग्नि को स्पर्श करते हो, सायं—सायंकाल, च—और, पायं प्रातःकाल, उदयं जल को, फुसंता—स्पर्श करते हुए, पाणाइं—प्राणियों का तथा, भूयाई-भूतों का, विहेडयंता विनाश करते हुए, भुज्जीवि—फिर भी तुम, मंदा—मन्द बुद्धि, पावं—पाप को, पकरेह—करते हो। ___मूलार्थ कुशा, यूप, तृण, काष्ठ और अग्नि तथा जल का स्पर्श करते हुए एवं प्राणियों और भूतों का प्रातःकाल और सायंकाल विनाश करते हुए फिर भी तुम मन्दबुद्धि होकर पापकर्मों का उपार्जन करते हो। । , श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 437 | हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं ।

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