Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 434
________________ टीका—यज्ञ-मंडप में बैठे हुए अध्यापक लोगों ने यक्ष के कोप से उन कुमारों की जो दशा देखी उसी का वर्णन इस गाथा में किया गया है। जैसे कि उन कुमारों का मस्तक नीचे गिरा हुआ है, दोनों भुजाएं पीठ की ओर फैली हुई हैं, मुख से रुधिर बह रहा है, जीभ और आंखें बाहिर निकल रही हैं, तथा शरीर निश्चेष्ट हो रहा है। यहां पर 'निब्भेरियच्छे’ यह देशी प्राकृत का प्रयोग है। इसके अनन्तर क्या हुआ, अब इसी बात को कहते हैं ते पासिया खंडिय कट्ठभूए, विमणो विसण्णो अह माहणो सो। इसिं पसाएइ सभारियाओ, हीलं च निंदं च खमाह भंते! ॥३०॥ तान् दृष्टा खण्डिकान्काष्ठभूतान्, विमना विषण्णोऽथ ब्राह्मणः सः । ऋषि प्रसादयति सभार्याकः, हीलां च निन्दां च क्षमध्वं भदन्त! ॥३०॥ पदार्थान्वयः-ते-उन, खंडिय—छात्रों को, कट्ठभूए—काष्ठ के समान बने हुओं को, पासिया देखकर, विमणो—उन्मनस्क, . विसण्णो विषादयुक्त, अह–अथ, स—वह, माहणो ब्राह्मण, इसिं—ऋषि को, पसाएइ प्रसन्न करता है, सभारियाओ—भार्या को साथ लेकर, भंते हे भगवन्!, हीलं—हीलना, च—और, निंदं–निंदा, च–पादपूर्ति में, खमाह-क्षमा कीजिए। मूलार्थ—काष्ठ की तरह चेष्ठा-रहित हुए उन छात्रों को देखकर सोमदेव को बहुत विषाद हुआ और वह अपनी भार्या को साथ लेकर उक्त मुनि को प्रसन्न करने के लिए उनके पास गया और कहने लगा कि:-'हे भगवन्! हमारे द्वारा आपकी जो हीलना और निन्दा हुई है। उसके लिए हमें क्षमा कीजिए।" ___टीका-यज्ञ-मण्डप के अधिष्ठाता सोमदेव ने उन कुमारों की इस प्रकार की दशा को देखकर मन में बहुत पश्चात्ताप किया और इस. कृत्य से उसको बहुत खेद हुआ। तब वह अपनी भार्या भद्रा को साथ लेकर उक्त ऋषि को प्रसन्न करने के निमित्त उसके चरणों में उपस्थित होकर अपने अपराधों की क्षमा मांगने लगा। अब क्षमा के प्रकार का वर्णन करते हैं, यथा. बालेहिं मूढेहिं अयाणएहिं, जं हीलिया तस्स खमाह भंते! । - महप्पसाया इसिणो हवंति, न हु मुणी कोवपरा हवंति ॥३१॥ बालैर्मूढेर - जानद्भिः, यद् हीलितास्तत्क्षमध्वम् भदन्त! | महाप्रसादा ऋषयो भवन्ति, न खलु मुनयः कोपपरा भवन्ति ॥ ३१॥ पदार्थान्वयः–बालेहिं—बालों ने, मूढेहिं—मूल् एवं, अयाणएहिं—अज्ञानियों ने, जं—जो, हीलिया—आपकी हीलना की है, तस्स-उसको, भंते—हे भगवन्! खमाह—क्षमा करें, महप्पसायामहाप्रसाद अर्थात् अति प्रसन्नचित वाले, इसिणो—ऋषि लोग, हवंति—होते हैं, हु–निश्चय ही, . मुणी–साधु, कोवपरा—क्रोधयुक्त, न हवंति–नहीं होते। - श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 431 | हरिएसिज्ज बारहं अज्झयणं ।

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