Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 435
________________ मूलार्थ हे भगवन्! इन मूढ़, अज्ञानी बालकों ने आपकी जो अवहेलना की है, आप उसे क्षमा करें, क्योंकि ऋषि लोग सदा ही प्रसन्नचित्त वाले होते हैं, इसीलिए मुनि लोग किसी पर क्रोध नहीं करते। टीका—सोमदेव नाम के ब्राह्मण ने उस मुनि के पास आकर उन बालकों के अपराध की क्षमा याचना की और कहा कि–'हे भगवन्! इन बालकों ने आपकी जो अवज्ञा की है उसको आप क्षमा करें, क्योंकि ये बालक वास्तव में अज्ञानी और मूर्ख हैं और आप महाकृपालु हैं। आप जैसे महात्मा पुरुष किसी पर कोप नहीं करते, प्रत्युत अविनीतों पर भी दयाभाव ही दिखाते हैं। इस गाथा में मुनि के स्वभाव का बहुत ही सुन्दर चित्र प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि अपराध करने वालों पर भी मुनिजनों को अनुकम्पा-भाव ही रखना चाहिए। इस गाथा में 'तस्स' के स्थान पर यद्यपि 'तत्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए था, तथापि प्राकृत के नियम को लेकर 'तत' के स्थान पर 'तस्स' का प्रयोग हुआ है। सोमदेव के वचनों को सुनकर उस ऋषि ने जो उत्तर दिया, अब उसी का शास्त्रकार वर्णन करते हैं पुट्विं च इण्डिं च अणागयं च, मणप्पदोसो न मे अत्थि कोई। जक्खा हु वेयावडियं करेंति, तम्हा हु एए निहया कुमारा॥३२॥ पूर्वं चेदानीं चानागतं च, मनःप्रद्वेषो न मेऽस्ति कोऽपि । यक्षाः खलु वैयावृत्त्यं कुर्वन्ति, तस्माखल्वेते निहताः कुमाराः ॥ ३२ ॥ .. पदार्थान्वयः-पुब्बिं—पहले, च-और, इण्डिं—इस समय, च–तथा, अणागयं-अनागत काल में, च–संभावना में है, मणप्पदोसो मन से भी द्वेष, न—नहीं, मे—मेरे, अत्थि है, कोई थोड़ा भी, जक्खा—यक्ष, हु—निश्चय ही मेरी, वेयावडियं—वैयावृत्य, करेंति—करते हैं, तम्हा—इसलिए, हु–जिससे, एए—ये-प्रत्यक्ष, निहया–ताड़ना किए गए हैं, कुमारा-कुमार। ___मूलार्थ इस यज्ञ-मंडप में आने से पहले तथा इस समय और आगे भी मेरा तुम्हारे प्रति थोड़ा सा मन से भी द्वेष नहीं है, किन्तु यक्ष मेरी सेवा में रहते हैं, अतः ये कुमार उन्हीं यक्षों के द्वारा अभिहत अर्थात् ताड़ित हुए हैं। टीकासोमदेव नाम के ब्राह्मण की विनय-प्रार्थना को सुनकर उस मुनि ने कहा कि- "मेरे मन में आप लोगों के प्रति न कोई पहले द्वेष था, न अब है और न कभी होगा। मैं तो शत्रु और मित्र दोनों पर ही समभाव रखने वाला हूं, अर्थात् मित्र से मेरा कोई प्यार नहीं और शत्रु से मेरा कोई द्वेष नहीं। तात्पर्य यह है कि वीतरागता की ओर बढ़ते हुए मुनि का संसार में कोई शत्रु अथवा मित्र नहीं होता। उसके लिए तो प्राणिमात्र ही उसकी आत्मा के समान है, इसलिए मैंने इन कुमारों का किसी प्रकार का अनिष्ट नहीं किया, किन्तु मेरी सेवा में रहने वाले यक्ष का यह कोप अवश्य है और उसी के द्वारा इन कुमारों की यह दशा हुई है। यहां पर 'हु' यह एव के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 432 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं


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