Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 427
________________ राज्ञस्तत्र कौशलिकस्य दुहिता, भद्रेति नाम्नाऽनिंदितांगी । तं दृष्ट्वा संयतं हन्यमानं, क्रुद्धान्कुमारान्परिनिर्वापयति || २० ॥ पदार्थान्वयः तहिं वहां पर, रन्नो राजा, कोसलियस्स—कौशलिक की, धूया-पुत्री, भद्दा-भद्रा, त्ति—ऐसे, नामेण—नाम वाली, अणिंदियंगी—सुन्दर अंगों वाली, तं—उस, संजय—संयत मुनि को, हम्ममाणं—मारते हुए, पासिया देखकर, कुद्धे कुमारे-कुपित हुए कुमारों को, परिनिव्ववेइ–सर्व प्रकार से शान्त करने लगी। मूलार्थ वहां पर आई हुई कौशलिक राजा की सुन्दर अंगों वाली भद्रा नाम की पुत्री ने उस संयत मुनि को क्रोध में आकर मारते हुए कुमारों को देखकर उन्हें सर्व प्रकार से शान्त किया अर्थात् उनको मारने से रोका। टीका-जिस समय विद्यार्थी लोग उस ऋषि को मारने लगे उस समय वहां पर कौशलिक नरेश की भद्रा नाम की कन्या का आगमन हुआ। वह अपने नाम के अनुरूप अपनी रूपराशि तथा अंग-लावण्य में भी अपूर्व थी। उसने कुपित हुए ब्राह्मण कुमारों के द्वारा हरिकेशबल मुनि को जब मार पड़ते देखी तब उन कुमारों को उसने सर्वभाव से शान्त किया, अर्थात् उस अकार्य से रोक दिया, क्योंकि वह उक्त मुनि से पहले ही परिचित थी तथा उसके तपोबल के प्रभाव को भी भली-भान्ति जानती थी, इसलिए उसने ब्राह्मण-कुमारों के अनुचित बर्ताव को देखकर उनको शान्त किया।। इस गाथा में यह भाव व्यक्त किया गया है कि जो जिसके गुणों से परिचित होता है वह उसमें अवश्य अनुराग रखता है और वह अन्य जीवों को भी उसके गुणों से परिचित कराने का यत्न करता है तथा जब कोई व्यक्ति किसी को बिना अपराध ही किसी प्रकार का दण्ड देने लगता है और वह व्यक्ति जिसको कि दण्ड दिया जा रहा है शान्तभाव से उस दण्ड को सहन कर रहा होता है तब कोई अन्य तटस्थ पुरुष उस दण्ड देने वाले को हटाता हुआ उस व्यक्ति की सहनशीलता की हार्दिक प्रशंसा किए बिना नहीं रहता, इसीलिए राजकुमारी भद्रा ने उन कुमारों को शान्त करके उनके प्रति उक्त मुनि के तपोबल के माहात्म्य का वर्णन किया। अब उक्त मुनि के सम्बन्ध में उन अध्यापकों के प्रति कहे जाने वाले राजकुमारी भद्रा के वचनों का उल्लेख किया जाता है देवाभिओगेण निओइएणं, दिन्नामु रन्ना मणसा न झाया । नरिन्ददेविन्दऽभिवन्दिएणं, जेणामि वंता इसिणा स एसो॥२१॥ देवाभियोगेन नियोजितेन, दत्ताऽस्मि राज्ञा मनसा न ध्याता | नरेन्द्रदेवेन्द्राभिवन्दितेन, येनास्मि वान्ता ऋषिणा स एषः || २१ ॥ पदार्थान्वयः—देवाभिओगेण देवता के अभियोग से, निओइएणं-और प्रेरणा से, रन्ना-राजा के, दिन्नामु मेरे को देने पर भी, मणसा—मन से, न—नहीं, झाया 'इच्छा की, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 424 | हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं

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