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आमोषान् लोमहारान्, ग्रंथिभेदांश्च तस्करान् । नगरस्य क्षेमं कृत्वा, ततो गच्छ क्षत्रिय ! ॥ २८ ॥
पदार्थान्वयः– आमोसे—–—–लुटेरों को, य- — और लोमहारे—प्राणघात करने वालों को, गंठिभेए—गांठ कतरने वालों को, तक्करे – चोरों को, नगरस्स — नगर का, खेमं – कल्याण, काऊण—– करके, तओ — तदनन्तर, खत्तिया - हे क्षत्रिय !, गच्छसि — तुझे जाना चाहिए ।
मूलार्थ हे क्षत्रिय ! लुटेरों, प्राण हरने वालों, गांठ कतरने और प्रत्यक्ष चोरी करने वालों से इस नगर को सुरक्षित करके फिर आपको जाना चाहिए ।
टीका - इस गाथा में इन्द्र ने राजर्षि नमि से पुनः उसी क्षत्रियोचित कर्त्तव्य के पालन करने का प्रस्ताव किया है। देवेंन्द्र कहते हैं कि महाराज ! इन चोरों, डाकुओं, लुटेरों और ठगों से इस नगरी को हर प्रकार से सुरक्षित करके आप जाएं और फिर निश्चिंत होकर दीक्षा ग्रहण करें, क्योंकि आप क्षत्रिय हैं, इसलिए अपनी प्रजा को निर्भय करने का आपको अवश्य प्रयत्न करना चाहिए। यह कार्य आपके लिए कुछ कठिन भी नहीं है ।
निसामित्ता, हेउकारणचोइओ
एयमट्ठ तओ नमी रायरिसी, देविंदं इणमब्बवी ॥ २६ ॥
एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः 1
ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् || २६ | (शब्दार्थ पूर्ववत्)
मूलार्थ - इन्द्र के इस पूर्वोक्त विचार को सुनकर राजर्षि नमि ने हेतु और कारण से प्रेरित होकर इन्द्र के प्रति इस प्रकार कहा
टीका - मूलार्थ से ही प्रस्तुत गाथा का भाव स्पष्ट हो रहा है, अतः विशेष व्याख्या अपेक्षित नहीं
है ।
नाम का उत्तर
असई तु मणुस्सेहिं, मिच्छादंडो पउञ्जई । अकारिणोऽत्थ बज्झंति, मुच्चई कारओ जणो ॥ ३०॥ असकृत्तु मनुष्यैः, मिथ्यादण्डः प्रयुज्यते I अकारिणोऽत्र बध्यन्ते, मुच्यते कारको जनः ॥ ३० ॥
' पदार्थान्वयः – असई – अनेक बार, मणुस्सेहिं – मनुष्यों के द्वारा, मिच्छादंडो - मिथ्या दण्ड का, पञ्जई — प्रयोग किया जाता है, अकारिणो— चोरी आदि अपराध न करने वाले, अत्थ - यहां — लोक में, बज्झंति — बांध दिए जाते हैं और, कारओ- चोरी आदि अपराध करने वाले, जणो – जन, मुच्चई — छोड़ दिए जाते हैं, तु—निश्चय से ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 323
णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं