Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 413
________________ उक्त यज्ञवाटिका में उपस्थित होने के बाद क्या हुआ, अब इसी विषय का प्रतिपादन करते हैं, यथा तं पासिऊणं एज्जन्तं तवेण परिसोसियं । पन्तोवहिउवगरणं, उवहसन्ति अणारिया ॥ ४ ॥ तं दृष्ट्वाऽऽयान्तं तपसा परिशोषितम् । प्रांतोपध्युपकरणं, उपहसन्त्यनार्याः ॥ ४ || पदार्थान्वयः – तं – उस मुनि को, एज्जंतं - आता हुआ, पासिऊणं - देख करके, तवेण तप से, परिसोसियं—परिशोषित, पंतोवहि- प्रान्त उपधि तथा उवगरणं— उपकरणों के धरने वाला, उवहसंति—उपहास करते हैं, अणारिया -अनार्य अर्थात् अनार्यों की तरह । मूलार्थ – उस समय तप से सूखा हुआ है शरीर जिसका तथा जिसके वस्त्रादि बाह्य उपकरण अत्यन्त जीर्ण हैं, ऐसे उस मुनि को मंडप में आते देखकर वे ब्राह्मण लोग अनार्यों को भांति उस मुनि का उपहास करने लगे । टीका – जिस समय हरिकेशबल मुनि यज्ञमंडप में आए, उस समय यज्ञ - विधान करने वाले ब्राह्मण लोग उस आगन्तुक के शरीर की आकृति को देखकर इस प्रकार उसका उपहास करने लगे जैसे किसी भद्र व्यक्ति का अनार्य लोग उपहास किया करते हैं। मुनि हरिकेशबल का बाह्य स्वरूप कुछ ऐसा था जिससे कि उसके अन्दर में रहने वाला आत्म-प्रकाश बिल्कुल तिरोहित सा हो रहा था । एक तो उनके शरीर की आकृति सुन्दर न थी, दूसरे वे तपश्चर्या से अत्यन्त क्षीण हो रहे थे एवं उनकी उपधि और उपकरण दोनों ही अत्यन्त जीर्ण और मलिन थे । उक्त मुनि के आन्तरिक स्वरूप को न समझते हुए यदि वे याज्ञिक लोग उनका उपहास करें तो यह कुछ अस्वाभाविक नहीं है । तथापि किसी आगन्तुक व्यक्ति का बिना प्रयोजन उपहास करना भी किसी प्रकार से शिष्टसम्मत नहीं कहा जा सकता। इसी अभिप्राय से उक्त गाथा में अनार्य शब्द का प्रयोग किया गया है, अर्थात् जैसे असभ्य व्यक्ति हर किसी का उपहास करने में प्रवृत्त हो जाते हैं, उसी प्रकार उन ब्राह्मणों भी उक्त मुनि से किसी प्रकार का परिचय प्राप्त किए बिना ही उनका उपहास करना आरम्भ कर दिया। निस्सन्देह उनका यह व्यवहार सभ्यता से गिरा हुआ था । उपधि और उपकरण में इतना ही भेद है कि साधु के हर समय पहरने तथा उपयोग में आने वाले वस्त्र - पात्र आदि उपधि हैं और वर्षा तथा शीतकाल में ओढ़ने योग्य कम्बल आदि उपकरण के नाम से व्यवहृत किए जाते हैं। अब उन याज्ञिक ब्राह्मणों के स्वरूप का वर्णन करते हैंजाईमयपडिथद्धा, हिंसगा अजिइन्दिया । अबम्भचारिणो बाला, इमं वयणमब्बवी ॥ ५ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 410 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं

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