Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 415
________________ टीका — मुनि हरिकेशबल को जब ब्राह्मणों ने दूर से आते देखा तब वे इस प्रकार कहने लगे—यह कौन आ रहा है जिसका कि रूप अति बीभत्स है, वर्ण अति काला है, इतना ही नहीं अति भयंकर होने से विकराल भी है। इसकी नासिका आगे से ऊंची और मध्य में बैठी हुई है, वस्त्र भी बिल्कुल जीर्ण हैं और धूलि के स्पर्श से पिशाच की तरह प्रतीत हो रहा है तथा संकर-दूष्य — ग्राम की रूड़ी से उठाकर लाए हुए अतिनिकृष्ट वस्त्रादि इसने गले में धारण कर रखे हैं, तात्पर्य यह है कि जैसे रूड़ी पर पड़े हुए वस्त्र बिल्कुल मलिन होते हैं उन्हीं के समान उक्त मुनि के वस्त्र हैं। पर शास्त्रकार ने जो गले में वस्त्र धारण करने का उल्लेख किया है, उससे यह प्रतीत होता है कि मुनि हरिकेशबल हर समय अपनी उपधि को साथ लेकर ही भ्रमण करते थे । उक्त गाथा में आए हुए 'विकराल' शब्द का अर्थ वृत्तिकारों ने यद्यपि ——विकरालो— विकृतांगोपांगधरः लंबोष्ठदंतुरत्वादि — विकारयुक्तः' यह अर्थ किया है, तथापि यहां पर एतावन्मात्र अर्थ ही युक्ति-संगत प्रतीत होता है कि- 'उसके अंगोपांग विकृत थे जिससे कि वे देखने वालों को भयंकर प्रतीत होते थे। इसके अतिरिक्त 'विकराल' का अर्थ यदि केवल ओष्ठ और दांतों की विकृति करना ही सूत्रकार को अभीष्ट होता तो जैसे नासिका के लिए — फोक्कनासः' का उल्लेख किया है, उसी प्रकार ओष्ठ और दांतों के लिए भी कोई दूसरा विशेषण अवश्य प्रयुक्त किया जाता, इसलिए विकराल शब्द का इतना ही अर्थ युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि उसका दर्शन बड़ा भयंकर था । 'फोक्कनास' का अर्थ है - 'फोक्का अग्रे स्थूलोन्नता मध्ये निम्ना- चिप्पटा नासा यस्य स फोक्कनासः' अर्थात् जिसकी नासिका आगे से स्थूल और ऊंची तथा मध्य में निम्न और चिपटी हो उसे फोक्कनासिक कहते हैं । इसके अनन्तर समीप आने पर उस आगन्तुक मुनि को वे ब्राह्मण कहते हैं— कयरे तुमं इय अदंसणिज्जे ?, काए व आसा इहमागओऽसि ? ओमचेलया पंसुपिसायभूया!, गच्छ क्खलाहि किमिहं ठिओऽसि ? ॥ ७ ॥ कतरस्त्वमित्यदर्शनीयः ?, कया वाऽऽशयाइहागतोऽसि ? अवमचेलक! पांशुपिशाचभूत! गच्छाऽपसर किमिह स्थितोऽसि ? ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः — करे –— कौन, तुमं— तू, इय- इस प्रकार, अदंसणिज्जे--अदर्शनीय, व — अथवा, काए – किस, आसा— आशा से, इहं— यहां पर, आगओऽसि — आया है, ओमचेलया — हे जीर्ण वस्त्रों के धारण करने वाले ! पंसुपिसायभूया — धूलि से पिशाच की भांति प्रतीत होने वाले ! गच्छ—जा, क्खलाहि, हमारी दृष्टि से परे हो! किं क्यों, इहं— यहां पर, ठिओसि — खड़ा है? मूलार्थ - कौन है तू जो कि इस प्रकार से अदर्शनीय है ? अथवा किस आशा से यहां पर आया है ? हे अतिजीर्ण वस्त्रों के धारण करने वाले पिशाचरूप! जा हमारी दृष्टि से परे हो जा ! तू क्यों यहां पर खड़ा है ? श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 412 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं.

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