Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 416
________________ टीका - प्रस्तुत गाथा में आमंत्रणार्थ में जो 'रे' शब्द का ग्रहण किया गया है वह अति नीचता का सूचक है और जो 'मागओसि' में मकार है, वह अलाक्षणिक है । एवं ‘क्खलाहि’ यह क्रियापद देशी प्राकृत का है, इसकी प्रतिरूप क्रिया 'अपसर' है। 'ओमचेलया - पिसायभूया' में सम्बोधन के विषय में अकार को प्राकृत के नियम से दीर्घ किया गया है, यथा - 'हे गोयमा' इसके अतिरिक्त इस पद को दूसरी बार जो गाथा में स्थान दिया गया है, उसका तात्पर्य अत्यन्त भर्त्सना से है । इस प्रकार ब्राह्मणों के तिरस्कार - युक्त वचनों को सुनकर उक्त तपस्वी मुनि ने तो उनको कुछ भी उत्तर नहीं दिया, परन्तु उनकी सेवा में रहने वाले उनके परम भक्त उस यक्ष ने जो कुछ किया और कहा अब उसी का वर्णन करते हैं— जक्खे तहिं तिन्दुयरुक्खवासी, अणुकम्पओ तस्स महामुणिस्स । पच्छायइत्ता नियगं सरीरं, इमाई वयणाइमुदाहरित्था ||८|| यक्षस्तस्मिन् (काले) तिन्दुकवृक्षवासी, अनुकम्पकः तस्य महामुनेः । प्रच्छाद्य निजकं शरीरं इमानि वचनान्युदाहृतवान् ॥ ८ ॥ पदार्थान्वयः—जक्खे—–—यक्ष, तहिं — उस समय, तिंदुयरुक्खवासी — तिन्दुक वृक्ष में रहने वाला, तस्स — उस, महामुणिस्स — महामुनि पर, अणुकम्पओ – अनुकम्पा करने वाला, पच्छायइत्ता - प्रच्छन्न करके, नियगं अपने, सरीरं—शरीर को, इमाई— इन — वक्ष्यमाण, वयणाई वचनों को, उदाहरित्था — बोलने लगा । मूलार्थ -- उस समय उक्त मुनि पर अनुकम्पा करने वाला तिन्दुक वृक्षवासी यक्ष अपने शरीर को प्रच्छन्न करके, अर्थात् उस मुनि के शरीर में प्रविष्ट होकर उन ब्राह्मणों से इस प्रकार बोला टीका- उन ब्राह्मणों के इस प्रकार के तिरस्कार - युक्त वचनों को सुनकर भी वे मुनि तो मौन ही रहे परन्तु उनकी सेवाभक्ति करने वाले यक्ष ने उनके शरीर में प्रविष्ट होकर उन ब्राह्मणों से वक्ष्यमाण वार्तालाप किया। इस कथन से यह सिद्ध हुआ कि उस समय उन यज्ञ - दीक्षित ब्राह्मणों के साथ मुनि हरिकेशबल का जो संवाद हुआ है वह वास्तव में उनका संवाद नहीं, किन्तु उनके शरीर में प्रविष्ट हुए उस यक्ष से हुआ संवाद है। इसके साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि देवगण केवल गुणों के अनुरागी होते हैं, उनको किसी जाति अथवा कुल से कोई अनुराग नहीं होता एवं धर्मात्मा और गुणिजनों की पूजा मनुष्य तो क्या देवता भी करते हैं 'देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो' - ( दशवैकालिक) यह भी स्पष्ट है । उक्त मुनि का मौन रहना उनकी आक्रोश - परीषह पर पूर्ण विजयशीलता का परिचायक है। तब साधुरूप से उस यक्ष का उन ब्राह्मणों से जो वार्तालाप हुआ अब उसी का वर्णन .. निम्नलिखित गाथा में करते हैं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 413 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं

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