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गिहाणि – घर, यं और — तथा, वालग्गपोइयाओ य— और वलभी घर — बनवाओ, तओतदनन्तर, खत्तिया — हे क्षत्रिय ! गच्छसि —तुम्हें जाना चाहिए ।
मूलार्थ - हे क्षत्रिय ! प्रासादों - महलों को बनवाकर तथा वर्धमान एवं सामान्य वलभी घरजल-महल बनवाकर बाद में तुम्हें जाना चाहिए।
टीका — देवेन्द्र राजर्षि नमि से कहते हैं कि यदि आपने जाना ही है तो प्रथम, प्रासाद — महल बनवाओ और फिर वास्तुशास्त्र के अनुसार अनेक प्रकार के सामान्य और वर्धमान घरों का निर्माण कराओ ! जैसे कि चन्द्रशाला - ( चौबारे ) से युक्त तथा आगे से बढ़े हुए अर्थात् छज्जे वाले घर बनवाओ तथा वलभीगृहों का निर्माण करवाओ जो कि छ ऋतुओं में सुख देने वाले हों । ‘बालग्गपोइया—बालाग्रपोतिका' यह देशीनाममाला में प्रयुक्त प्राकृत भाषा का शब्द है जो कि वलभीघर का वाचक है। बालाग्र पोतिका उस गृहविशेष को कहा जाता था जिसके चारों ओर जल हो । प्राचीन काल में इस प्रकार के घर बनवाने की प्रथा विशेष रूप से प्रचलित थी । इन्द्र कहता है— तुम्हें ऐसे स्थान भी बनवाने चाहिएं जो कि दर्शकों के लिए आनन्द-प्रद हों, क्योंकि जो बाहर से दर्शक आते हैं वे नगरी के वास्तु शास्त्र के अनुसार बने हुए स्थानों को देखकर बहुत ही प्रसन्न होते हैं। नगरी का सौन्दर्य आपके हाथ में है, आप जैसा चाहो, बनवा सकते हैं, अतः प्रव्रज्या से पूर्व यह काम आपको अवश्य करना चाहिए ।
एयमट्ठ निसामिंत्ता, हेउ - कारण - चोइओ । तओ नमी रायरिसी, देविन्दं इणमब्बवी ॥ २५ ॥ एनमर्थं निशम्य, हेतु-कारण-नोदितः I ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥ २५ ॥ (शब्दार्थ पूर्ववत्)
मूलार्थ - ब्राह्मण रूपधारी इन्द्र की इस बात को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित होकर राजर्षि नमि ने इस प्रकार कहा
टीका - इस गाथा का अर्थ सर्वथा स्पष्ट है, अतः विशेष विवेचना की आवश्यकता नहीं है ।
राजर्षि का समाधान
संसयं खलु सो कुणई, जो मग्गे कुणई घरं । जत्थेव गन्तुमिच्छेज्जा, तत्थ कुव्वेज्ज सासयं ॥ २६॥ संशयं खलु स कुरुते, यो मार्गे कुरुते गृहम् ।
यत्रैव गन्तुमिच्छेत्, तत्र कुर्वीत शाश्वतम् || २६ ॥
पदार्थान्वयः—–संसयं—–— संशययुक्त, खलु – (निश्चयार्थक है), सो - वह, कुणई
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 321 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
—करता है,