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संसर्ग भी विद्या की प्राप्ति में विघ्न रूप ही है, इसीलिए विनीत शिष्य को इनका भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए ।
गुरुजनों का उपदेश
मा य चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे | कालेण य अहिज्जित्ता, तओ झाएज्ज एगओ ॥ १०॥
मा च चण्डालीकं कार्षीः, बहुकं मा चालपेत् । कालेन चाधीत्य, ततो ध्यायेदेककः || १० ||
पदार्थान्वयः—हे शिष्य !, मा— मत, य- समुच्चय, चण्डालियं—- क्रोध के वशीभूत होकर झूठ, कासी— बोले, य— और, मा— मत, बहुयं - बहुत, आलवे – बोले, य-और, काले-काल के प्रमाण के अनुसार, अहिज्जित्ता — पढ़कर, तओ – उसके पश्चात्, झाएज्ज - ध्यान कर, एगओ - एक होकर ।
मूलार्थ - हे शिष्य ! क्रोध के वशीभूत होकर तू झूठ मत बोल और बहुत मत बोल, किन्तु काल के अनुसार अध्ययन करने के पश्चात् एक होकर उसका ध्यान कर ।
टीका :- गुरु शिष्य को उपदेश करते हैं कि वह क्रोध और लोभ आदि के वशीभूत होकर कभी झूठ न बोले, क्योंकि मृषावाद का आचरण साधु के लिए हर प्रकार से निन्दनीय है। झूठ बोलने से मनुष्य सभी के अविश्वास का पात्र बन जाता है, इसलिए असत्य भाषण का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
बिना प्रयोजन के अधिक बोलना भी किसी प्रकार से उचित नहीं होता, क्योंकि अधिक बोलने से ध्यान में, अध्ययन और अध्यापन में विघ्न पड़ता है तथा अधिक बोलने से क्लेश और बहिर्मुखता बढ़ती है। इसलिए बिना प्रयोजन प्रमाण से अधिक, अमर्यादित भाषण कभी नहीं करना चा, अर्थात् दिवस में प्रथम भाग में पढ़कर उसके पश्चात् द्रव्य और भाव से एकाकी होकर जो अधीत विषय है उसका चिन्तन करना चाहिए । द्रव्य से अकेला होने का अभिप्राय है स्त्री, पशु और नपुंसकादि से रहित स्थान में बैठना और भाव से राग-द्वेषादि से रहित होना है। तात्पर्य यह है कि दिवस के आद्य भाग में गुरुजनों से शास्त्र पढ़कर बाद में द्वेष-रहित होकर एकान्त स्थान में बैठकर उस पढ़े हुए का चिन्तन करना चाहिए ।
इस गाथा में अकृत्य का त्याग और कृत्य के सेवन का उपदेश दिया गया है जो कि मुमुक्षु के लिए परम हितकर है। तथा 'वद्' धातु के स्थान में 'कृ' धातु के प्रयोग से जो काम चलाया है, वह ' धातूनामनेकार्थत्वात्' इस नियम के आधार पर है।
यदि क्रोधादि के वशीभूत होकर शिष्य कभी झूठ बोल दे, तो फिर उसका क्या कर्त्तव्य है, इस विषय का निम्नलिखित गाथा में वर्णन किया गया है—
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 68 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं