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सार्थक, हित और मित बोलने का ही प्रयत्न करे जिससे अपना और दूसरों का कभी अहित न हो। इसी में साधक की शिष्य की आध्यात्मिक उत्क्रान्ति निहित है। यहां पर वृत्तिकार ने ‘अन्तरेण' का अर्थ 'प्रयोजन बिना' यही किया है।
- संसर्गज दोषों के परिहार का उपदेशपूर्व की गाथाओं में आत्मगत दोषों के त्याग का उपदेश दिया गया है, अब संसर्गज दोषों के त्याग के विषय में कहते हैं
समरेसु अगारेसु, सन्धीसु य महापहे । एगो एगित्थिए सद्धिं नेव चिढे न संलवे ॥ २६ ॥ ___ समरेषु अगारेषु, सन्धिषु च महापथे ।
एक एकस्त्रिया सार्धं, नैव तिष्ठेन्न संलपेत् || २६॥ पदार्थान्वयः समरेसु-फूस की झोंपड़ी में, अगारेसु–घरों में, सन्धीसु—दो घरों की सन्धियों में, य—और, महापहे—राजमार्ग में, एगो—अकेला साधु, एगिथिए—अकेली स्त्री के, सद्धिं-साथ, नेव चिढ़े—न खड़ा होवे और, न संलवे—न बोले।
मूलार्थ खरकुटी में, घरों में, घरों की सन्धियों में और राजमार्ग में अकेला साधु अकेली स्त्री के साथ न खड़ा हो और न ही उसके साथ बातचीत करे।
टीका—इस गाथा में संसर्ग-जन्य दोषों के आगमन-भय से साधु को स्त्रीजनों के परिचय में आने का निषेध किया गया है, क्योंकि साधु यदि स्त्री-समुदाय के परिचय में आएगा तो उसके लिए अवश्य किसी-न-किसी अपवाद का भागी बनने की आशंका रहेगी। अधिक नहीं तो जनता में तो उसके लिए अवश्य थोड़ा बहुत असद्भाव पैदा हो जाएगा, अतः साधुपुरुष को चाहिए कि वह येन केन प्रकारेण स्त्रीजनों के संसर्ग से अपने आप को अलग रखने का प्रयत्न करे। ___ इसी विषय को सूत्रकार कहते हैं कि कोई एकाकी साधु किसी अकेली स्त्री के साथ निम्नलिखित स्थानों में न तो कभी खड़ा हो और न किसी स्त्री के साथ किसी प्रकार का संभाषण करे—जहां पर विशेष अन्धकार हो ऐसे स्थानों में, शून्य घरों में और जहां पर घरों की सन्धियां मिलती हों ऐसे स्थलों में तथा राजमार्ग में अकेला साधु अकेली स्त्री के परिचय में कभी भी न आए, क्योंकि इन उपर्युक्त स्थानों में साधु का स्त्री के साथ परिचय में आना जनता में अवश्य ही सन्देह का कारण बन जाता है, इसलिए इन उक्त स्थानों में तो स्त्री के परिचय में संयमी पुरुष कभी न आए। ___ यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि सूत्रकार ने इन शंकित स्थानों में स्त्री-परिचय का जो संयमी पुरुष के लिए निषेध किया है वह उसके ब्रह्मचर्य व्रत को निर्दोष और उसकी कीर्ति को उज्ज्वल रखने के निमित्त ही किया है।
उक्त गाथा में जो 'समर' शब्द दिया गया है, उसका अर्थ चूर्णीकार ने 'लोहारशाला' किया है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 82 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं .