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उसकी सदोषता और निर्दोषता का भी साधु को परिज्ञान नहीं हो पाता ।
इसी प्रकार तहखाने आदि नीचे के स्थानों से दिए गए आहार को भी साधु ग्रहण न करे, क्योंकि वहां पर भी गहन अन्धकार होने के कारण साधु की दृष्टि का सुगमता से प्रवेश नहीं हो सकता । अत्यन्त समीप और दूर से आहार लेने पर भी अधिक राग और घृणा के उत्पन्न होने की आशंका रहती है, इसलिए संयमशील साधु को उचित है कि वह देख-भाल कर उसी आहार को ग्रहण करे जो कि उसके निमित्त से न बनाया गया हो, तथा अचित हो और चौबारे तथा तहखाने आदि ऊंचे-नीचे स्थानों से न फेंका गया हो और साथ में वह बिना मांगे न दिया गया हो ।
इस प्रकार से विधिपूर्वक आहार लेने वाला साधु ही अपने संयम को सुव्यवस्थित रख सकता है और गृहस्थों के घरों से लिए गए इस आहार से अपने शरीर का पोषण करता हुआ भी वह किसी प्रकार से पाप कर्म का बन्धन नहीं करता ।
यहां पर स्थान की ऊंचाई और नीचाई का उल्लेख द्रव्य और भाव दोनों की दृष्टि से किया गया है । द्रव्य तो चन्द्रशाला - चौबारा आदि है और भाव से लब्धि का ग्रहण है। तात्पर्य यह कि 'मैं लब्धि सम्पन्न हूं' इस बात का साधु गर्व न करे ।
द्रव्य से नीचा स्थान तहखाना आदि है और भाव से नीचता तथा दीनता-सूचक गद्गद् वचनों का प्रयोग करना है। तात्पर्य यह है कि आहार के निमित्त साधु किसी प्रकार की दीनता का अवलम्बन न करे। यहां पर इतना और भी स्मरण रखना चाहिए कि आहार लेने की जो यह विधि शास्त्र में वर्णन की गई है, इसका प्रयोजन केवल साधु-धर्म का संरक्षणमात्र है । .
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अब पिंडैषणा के बाद ग्रासैषणा का वर्णन किया जाता हैअप्पपाणेऽप्पबीयम्मि, पडिच्छन्नम्म संडे ।
समयं संजए भुंजे, जयं अपरिसाडियं ॥ ३५ ॥ अल्पप्राणेऽल्पबीजे, प्रतिच्छन्ने संवृते T
समकं संयतो भुञ्जीत, यतमपरिशाटितम् || ३५ ||
पदार्थान्वयः – अप्पपाणेऽ प्पबीयम्मि – अल्प प्राणी और अल्प बीज वाले, पड़िच्छन्नम्मि—चारों ओर से ढके हुए, संवुडे – दोनों ओर दीवारों से संवृत स्थान में, समयं - अपने समान, संजए— साधु के साथ, भुंजे – आहार करे, जयं यत्न से, अपरिसाडियं — भूमि पर न गिराता हुआ ।
मूलार्थ – साधु अल्प प्राणों और अल्प बीज वाले चारों ओर से ढके हुए तथा दोनों तरफ आदि से घिरे हुए उपाश्रय आदि स्थान में अपने समान साधुओं के साथ बैठकर यतना से भूमि पर न गिराता हुआ आहार करे ।
टीका—साधु शास्त्र-विधि के अनुसार निर्दोष आहार लाकर कैसे स्थान में और किनके साथ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 90 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं