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टीका—राजर्षि नमि ने देवेन्द्र को उत्तर देते हुए कहा कि मैंने शत्रुओं से संरक्षित रहने के लिए तुम्हारे कथन के अनुसार प्रथम से ही सब कुछ तैयार कर लिया है। यथा श्रद्धा अर्थात् तत्त्वाभिरुचि रूप तो नगर बनाया है जो कि समस्त गुणों का आधार भूत है और उपशम-संवेग आदि उसके गोपुर-दुर्गद्वार बनाए हैं। फिर उन द्वारों के कपाटों पर षड्विध बाह्यतप और पंचविध आश्रव के निरोध करने वाले संवर रूप अर्गल भी लगवा दिए हैं ताकि मिथ्यात्व आदि शत्रुओं का नगर में प्रवेश न हो सके। श्रद्धा रूप नगर को विशेष रूप से सुरक्षित रखने के लिए मैंने उसके चारों तरफ उत्तम क्षमा का दृढ़तर प्राकार अर्थात् कोट बना दिया है और साथ ही उसके त्रिगुप्ति रूप अट्टालक-खाई और शतघ्नी आदि शस्त्र भी तैयार कर लिए हैं, जैसे कि मनो-गुप्ति अट्टालक, वचन-गुप्ति खाई और शरीर-गुप्ति शतघ्नी तथा अन्य अस्त्र-शस्त्र आदि हैं।
इस नगरी में अब किसी शत्रु के आने का भय नहीं है, क्योंकि इसका क्षमा-रूप प्राकार-कोट इतना दृढ़ और मजबूत बना है कि कोई भी शत्रु इसको सहज ही तोड़ नहीं सकता। इस पर भी यदि कोई शत्रु इस पर आक्रमण करे तो मैं अवश्य ही अपने अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा उसके साथ युद्ध करूंगा और हर प्रकार से नगर को बाहर के शत्रुओं से सुरक्षित रखने का प्रयल करूंगा।
राजर्षि नमि ने इन्द्र के प्रति उसके प्रश्न का उत्तर देते हुए आत्म-संरक्षण के लिए संयमशील मुनि को किस प्रकार के आध्यात्मिक दुर्ग का निर्माण करके, राग-द्वेष आदि प्रबल शत्रुओं के आक्रमण से अपने साधक जीवन को बचाए रखने का यल करना चाहिए, यह सब कुछ बताते हुए अपने वास्तविक क्षत्रियत्व का पूर्ण रूप से परिचय दे दिया है। जिससे कि देवेन्द्र उनके आध्यात्मिक जीवन के आन्तरिक स्वरूप को भली-भांति समझ सके।
यद्यपि मूल गाथा में अट्ट' पद का प्रयोग नहीं किया गया, तथापि उसका अध्याहार कर लेना चाहिए। अब इसी विषय में फिर कहते हैं
धणुं परक्कम किच्चा, जीवं च इरियं सया । धिइं च केयणं किच्चा, सच्चेणं पलिमंथए ॥ २१॥ .
धनुः पराक्रमं कृत्वा, जीवां चेर्यां सदा ।
धृतिं च केतनं कृत्वा, सत्येन परिमथ्नीयात् ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः–धj–धनुष, परक्कमं—पराक्रमरूप, किच्चा—करके, च—और, जीवं—जीवा अर्थात् डोरी को, इरियं ईर्या समिति रूप, सया–सदा, धिइं–धृतिरूप, केयणं-केतन, किच्चा—करके, च-और फिर, सच्चेणं-सत्य से, पलिमंथए–धनुष को बांधे । मूलार्थ—संयम के लिए किए गए पराक्रम रूप धनुष में ईर्या-समिति रूप जीवा अर्थात् प्रत्यंचा
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 318 | णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं