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अपि च ‘परीत्ति सर्वप्रकारेण सह्यते इति परीषहः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो सर्व प्रकार से सहन किया जाए उसको परीषह कहते हैं तथा स्वाध्याय-भूमि वा श्मशान-भूमि को नैषेधिकी कहा जाता है। उपाश्रय को शय्या, याञ्चा को जायणा, वस्तु के स्वरूप को स्वयं जान लेने का नाम प्रज्ञा और ज्ञान के अभाव को अज्ञान तथा सम्यक्त्व का नाम दर्शन है। परीषहों का सामान्य वर्णन
परीसहाणं पविभत्ती, कासवेणं पवेइया । . तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुव्विं सुणेह मे ॥ १ ॥ .. परीषहाणां प्रविभक्तिः, काश्यपेन प्रवेदिता |
तां भवतामुदाहरिष्यामि, आनुपूर्व्या श्रृणुत मे ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः—परीसहाणं—परीषहों का, पविभत्ती—जो विभाग, कासवेणं-काश्यप ने—प्रभु महावीर ने, पवेइया बताया है, तं—उसको, भे—आपके प्रति, उदाहरिस्सामि—प्रतिपादन करूंगा, आणुपुब्बिंअनुक्रम से, मे—मुझ से, सुणेह—सुनें । ___ मूलार्थ कश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी ने परीषहों का जो-जो विभाग प्रतिपादन किया है, उसको मैं आपके प्रति कहूंगा, आप मुझसे उसको श्रवण करें।
___टीका—बाईस परीषहों के नामों का निर्देश ऊपर किया जा चुका है। अब उनके स्वरूप का वर्णन करना शेष रहता है जो कि नीचें किया जाएगा। यद्यपि 'काश्यप' शब्द सामान्यतया भगवान् ऋषभ देव का वाचक है, परन्तु वृत्तिकार ने यहां पर 'काश्यप' शब्द से भगवान् महावीर स्वामी का ग्रहण किया है, क्योंकि वे ही इस समय के शासनपति हैं। प्राकृत भाषा में सभी विभक्तियों के स्थान में प्रायः 'भे' का आदेश किया जाता है, इसलिए 'भे' का भवताम् अर्थ करने में किसी प्रकार की भी आपत्ति नहीं है।
इसके अतिरिक्त ‘उदाहरिस्सामि' इस भविष्यत्कालीन क्रिया के प्रयोग से (जैसे कि इस अध्ययन में प्रारम्भिक गाथा की व्याख्या में बताया जा चुका है) कि परीषहों के स्वरूप को यथार्थ रूप में प्रतिपादन करने की अपनी असमर्थता दिखाना ही सूत्रकर्ता को अभिप्रेत है, क्योंकि सर्वज्ञभाषित पदार्थ का यथावत् रूप से प्रतिपादन करना छद्मस्थ की शक्ति से सर्वथा बाहर हुआ करता है। वे तो अपनी परिमित शक्ति के अनुसार ही पदार्थ का वर्णन कर सकते हैं। कोई भी व्याख्याता अथवा उपदेशक जब तक अपने प्रतिपाद्य विषय का जिसकी व्याख्या करना या उपदेश देना उसे अभीष्ट है, यदि वह पहले ही उसका नाम-निर्देश नहीं कर देता तो पाठकों व श्रोताओं को उसके पढ़ने और श्रवण करने में उत्कट रुचि पैदा नहीं होती और न ही वे सुगमता से उस विषय को धारण कर सकते हैं। इसलिए व्याख्याता अथवा वक्ता का यह सबसे पहला कर्त्तव्य हो जाता है कि वह अपने प्रतिपाद्य विषय का व्याख्यान अथवा निरूपण करने से पहले उसके नाम का निर्देश कर दे। बस, इसी
माशय
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 111 | दुइअं परीसहज्झयणं