________________
सुप्पसारए-सुखपूर्वक पसारा जाता अतएव, सेओ श्रेय है, अगारवासु–घर में रहना, त्ति—पादपूरणार्थक है, इइ—इस प्रकार, भिक्खू–साधु, न चिंतए–चिन्तन न करे।
मूलार्थ भिक्षा के निमित्त गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ भिक्षु इस प्रकार का चिन्तन कभी न करे कि इन लोगों के घरों में प्रतिदिन हाथ पसारने की अपेक्षा तो घर में रहना ही अच्छा है।
टीका इस गाथा में साधु के लिए साधु-धर्मोचित भिक्षावृत्ति में ग्लानि न करने का आदेश दिया गया है। वीतराग देव के धर्म में प्रविष्ट हुए संयमशील साधु का शास्त्र-विहित यही धर्म है कि वह अपनी उदरपूर्ति के निमित्त किसी भी प्रकार के आरम्भ में प्रवृत्त न हो, किन्तु साधुजनानुमोदित भिक्षावृत्ति से निर्दोष आहार का ग्रहण करता हुआ ही वह अपने संयम का यथावत् पालन करे, इसी में उसके मुनिधर्म की विशिष्टता है। इसलिए भिक्षा के निमित्त किसी परिचित अथवा अपरिचित गृहस्थ के घर में प्रवेश करता हुआ साधु मन में यह कभी विचार न करे कि इन लोगों के सामने नित्यप्रति भिक्षा के लिए हाथ पसारना तो कुछ उचित प्रतीत नहीं होता, इसकी अपेक्षा तो घर में रहकर न्यायपूर्वक हाथ से कमाकर खाना कहीं अधिक अच्छा है।
इसका तात्पर्य यह है कि साधु को इस प्रकार के विचारों से अलग रखने का जो शास्त्रों में विधान है उसके दो हेतु हैं, एक तो साधु-चर्या में होने वाली सावध प्रवृत्ति का निषेध और उसकी निष्पाप प्रवृत्ति की रक्षा । दूसरे सुपात्रंदान से गृहस्थों पर होने वाले उपकार की स्थिरता और मुनिधर्म के उज्ज्वल आचार की प्रतिष्ठा। इन दो कारणों से साधु को अपने मुनिजनोचित याञ्चारूप कार्य से कभी भी ग्लानि नहीं करनी चाहिए।
गृहस्थ के प्रवृत्ति-धर्म का परित्याग करके सर्वथा निवृत्ति-मार्ग का अनुसरण करने वाला साधु यदि भिक्षा-वृत्ति के संकोच से पुनः गृही बनने का संकल्प करे तो उसके निवृत्ति-मार्ग का कुछ भी मूल्य नहीं रह जाता और जिस आरम्भ-मूलक सावध प्रवृत्ति के त्याग की उसने प्रतिज्ञा की है, वह भी सर्वथा निःसार और अर्थशून्य हो जाती है तथा त्याग-प्रधान साधुवृत्ति का भी सर्वथा उच्छेद हो जाता है, इसलिए किसी भी गृहस्थ को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचाए बिना भ्रमर की तरह भिक्षावृत्ति करके केवल शुद्ध आहार के द्वारा अपने प्राणों का पोषण करने वाला साधु संयम में दृढ़ रहता हुआ स्वयं भी तैरता है और भिक्षा देने वाले गृहस्थों को भी तार देता है। अतः सर्वविरति—सर्वत्यागी साधु को भिक्षावृत्ति में कभी संकोच नहीं करना चाहिए, यह तो उसका शास्त्र-विहित शुद्ध आचार है।
(१५) अलाभ-परीषह भिक्षा मांगने पर यदि भिक्षा न मिले तो फिर अलाभ-परीषह की उपस्थिति हो जाती है। इसलिए अब पन्द्रहवें अलाभ-परीषह का वर्णन किया जाता है
परेसु घासमेसेज्जा, भोयणे परिणिट्ठिए । लद्धे पिण्डे अलद्धे वा, नाणुतप्पेज्ज पंडिए ॥ ३०॥
__ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 136 / दुइअं परीसहज्झयणं
।