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टीका—किसी वृद्ध अथवा आतुर साधु के निमित्त भिक्षा या औषध आदि लेने के लिए साधु यदि किसी गृहस्थ के घर में प्रवेश करे और वहां पर उससे पहले यदि कोई और भिक्षु खड़ा हो तथा
औषध आदि आवश्यक वस्तु का उसी घर में योग हो तो साधु उसका उल्लंघन करके आगे न बढ़े, किन्तु किसी एकान्त स्थान में जाकर खड़ा हो जाए जहां से कि वह उस भिक्षु के न तो बहुत निकट में हो और न ही बहुत दूरी पर हो, एवं उस भिक्षु तथा घर के अन्य लोगों की आंखों के सामने भी जाकर खड़ा न हो। ज़ब वह भिक्षु भिक्षा लेकर चला जाए तो फिर वहां से आहार अथवा औषध आदि आवश्यक वस्तुओं को ग्रहण करे। पहले से घर में आए हुए भिक्षु के उल्लंघन करने और उसके समीप में जाकर खड़े होने से उक्त भिक्षु के मन में स्पर्धा पैदा होने के अतिरिक्त घर के लोगों में भी अप्रीति के भाव उत्पन्न होने की आशंका रहती है, इसलिए ऐसे आचरण की शास्त्रों में साधु के लिए मनाही कर दी गई है। .. ____ इस गाथा में 'नाइदूरं' यह सप्तमी के स्थान में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग आर्ष होने से समझना और 'फासओ-स्पर्शतः' में तस् प्रत्यय सप्तमी विभक्ति के अर्थ में है।
तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार से किसी आगन्तुक भिक्षु और भिक्षा देने वाले सद्गृहस्थ के मन में किसी प्रकार की अप्रीति उत्पन्न न हो और शासन की भी किसी प्रकार की अवहेलना न हो, उसी प्रकार से भिक्षा करना उचित है। ____ अब फिर इसी विषय का वर्णन करते हैं
नाइउच्चेव नीए वा, नासन्ने नाइदूरओ । फास्यं परकडं पिण्डं, पडिगाहिज्ज संजए ॥ ३४ ॥
नात्युच्चैव नीचैर्वा, नासन्ने नातिदूरतः । . प्रासुकं परकृतं पिण्डं, प्रतिगृह्णीयात् संयतः ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः—नाइ–न अति, उच्चेव—ऊंचे से ही, वा—अथवा, न नीए-न नीचे से, नासन्नेन समीप से, नाइदूरओ—न अति दूर से, फासुयं—अचित-निर्जीव, परकडं दूसरों के लिए बनाया हुआ, पिंडं—आहार, संजए—संयमी–साधु, पडिगाहिज्ज—ग्रहण करे ।
मूलार्थ-संयमशील साधु गृहस्थ के घर में जाकर दूसरों के निमित्त से बनाए गए अचित्त-आहार को ग्रहण करे, परन्तु वह आहार ऊंचे स्थान से व नीचे स्थान से तथा अति समीप और अति दूर से न दिया गया हो।
• टीका—इस गाथा में साधु के लिए निर्दोष आहार लेने की विधि का वर्णन किया गया है। यदि संयमशील साधु भिक्षा के निमित्त किसी गृहस्थ के घर में जाए और वह गृहस्थ ऊपर चौबारे में से उसके पात्र में भिक्षा डाले तो साधु न ले, क्योंकि ऊपर से डाली हुई भिक्षा में एक तो यतना नहीं रहती, उसके इधर-उधर गिर जाने का भी भय रहता है और दूसरे उस पर पूर्णतया दृष्टि न पड़ने से
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 89 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं