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भद्दं— भद्र, हयं — घोड़े, व — की तरह, वाहए — वाहक, बालं — मूर्ख को, सासंतो— शिक्षित करता हुआ, सम्म — कष्ट पाता है, गलियस्सं — दुष्ट घोड़े, व — की तरह, वाहए — वाहक ।
मूलार्थ - गुरु पण्डित शिष्यों पर शासन करता हुआ इस प्रकार से आनन्द को प्राप्त होता है जैसे उत्तम घोड़े पर शासन करने वाला वाहक, और मूर्ख शिष्यों को शिक्षा देता हुआ गुरु ऐसे कष्ट पाता है जैसे दुष्ट घोड़े का शिक्षक अर्थात् वाहक ।
टीका – विनयशील शिष्य को शिक्षा देने से गुरुजनों को किस प्रकार के सुन्दर फल की प्राप्ति होती है और अविनीत शिष्य के शासन से उन्हें किस प्रकार के कुफल का अनुभव करना पड़ता है, इस विषय का सरल और दुष्ट स्वभाव के अश्व के दृष्टान्त से शास्त्रकार ने बहुत ही उत्तमता से विवेचन किया है।
जिस प्रकार सरल प्रकृति का घोड़ा थोड़े में ही अपने वाहक की शिक्षा को ग्रहण करके उसकी आज्ञा के अनुसार चलकर उसे आनन्द देने लगता है, इसी प्रकार विनीत शिष्य भी अपने गुरुजनों की शिक्षा को संकेतमात्र से हीं ग्रहण करके उनकी मनोवृत्ति के अनुसार चलता हुआ गुरुजनों के असीम आनन्द का हेतु बन जाता है । जिस प्रकार दुष्ट घोड़ा अपने शिक्षक के शासन को न मानकर अपनी कुचेष्टाओं से सुख के बदले उन्हें कष्ट पहुंचाने का कारण बनता है, ठीक इसी प्रकार अविनीत शिष्य को शिक्षा देने से विपरीत परिणाम का अनुभव भी गुरुजनों को करना ही पड़ता है। जिस प्रकार दुष्ट घोड़ा स्वयं दुखी होता हुआ अपने शासक को भी दुख में डाल देता है, इसी प्रकार मूर्ख शिष्य गुरुजनों की शिक्षा को विपरीत रूप में ग्रहण करके स्वयं कलुषित होता हुआ गुरुजनों को भी कष्ट पहुंचाने में कुछ कसर नहीं रखता। इसलिए शासन करते समय गुरुजनों को सबसे पहले योग्यायोग्य शिष्य का विचार अवश्य कर लेना चाहिए ।
यहां पर भले घोड़े के समान तो विनीत शिष्य है और दुष्ट घोड़े के सदृश विनय-रहित कुशिष्य को समझना चाहिए। इस गाथा में 'व' शब्द सदृश अर्थ का बोध करने वाले ‘इव' अव्यय के स्थान पर प्रयुक्त किया गया है।
यहां पर इतना और भी स्मरण रखना चाहिए कि ग्रन्थ के इस अध्याय में इससे पहले भी इसी प्रकार के विषय में अश्व की उपमा दी जा चुकी है, अब पुनः उसके उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि शास्त्र में अश्व को एक बहुमूल्य रत्न के समान माना गया है, इसलिए उसका पुनः उल्लेख हुआ
है ।
मूर्ख शिष्य के हृदय पर गुरुओं की शिक्षा का कैसा प्रभाव पड़ता है तथा उसको वह किस रूप में समझता है, अब इस विषय में कुछ प्रकाश डाला जाता है—
खड्डुया मे चवेडा मे, अक्कोसा य वहा य. मे । कल्लाणमणुसासन्तो, पावदिट्ठित्ति मन्नई ॥ ३८ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 93 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं