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गाथा में शास्त्रकार कहते हैं जो व्यवहार धर्म से अर्जित किया है और तत्त्ववेत्ता आचार्यों ने जिसका स्वयं आचरण किया है ऐसे शुद्ध व्यवहार का पालन करने वाला साधक कभी निन्दा या अपयश का भागी नहीं बनता ।
इससे सिद्ध हुआ कि इसके विरुद्ध स्वेच्छा - कल्पित व्यवहार का आचरण करने वाला इस लोक में अवश्य निन्दा का पात्र बनेगा जो कि इष्ट नहीं है ।
इस प्रकार शुद्ध व्यवहार को ग्रहण करके शिष्य का गुरुजनों के प्रति जो कर्त्तव्य है, अब उसकी चर्चा की जाती है—
मणोगयं वक्कगयं, जाणित्ताऽऽयरियस्स उ ।
तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ॥ ४३ ॥ मनोगतं वाक्यगतं ज्ञात्वाऽऽचार्यस्य तु
तं परिगृह्य वाचा, कर्मणोपपादयेत् ॥ ४३ 11
पदार्थान्वयः मणोगयं— मन के भाव, वक्कगयं — वचन के भाव, उ — अर्थात् काय के भाव, आयरियस्स — आचार्य के, जाणित्ता — जान करके, तं— उस भाव को, वायाए – वाणी से, परिगिज्झ— ग्रहण करके, कम्मुणा – कार्य से, उववायए — पूर्ण करे ।
मूलार्थ – आचार्य के मन, वचन और काय के भावों को जानकर वचनों द्वारा स्वीकार करके · उनको शरीर द्वारा पूर्ण करे ।
टीका-विनय-धर्म की आराधना में प्रवृत्त होने वाले मेधावी साधक का गुरु चरणों में किस प्रकार का अनुराग होना चाहिए, इस बात का दिग्दर्शन उक्त गाथा में कराया गया है। भावसूचक अंग-प्रत्यंग संचालन रूप किसी भी चेष्टा से आचार्यों – गुरुजनों के मन, वाणी और शरीरगत भावों को समझकर विनीत शिष्य उन्हें वाणी में लाता हुआ आचरण में लाकर उसे पूर्ण करने का प्रयत्न करे । इसका तात्पर्य यह है कि योग्य शिष्य गुरुजनों के वचन और आदेश की प्रतीक्षा न करता हुआ जहां तक हो सके अपनी योग्यता और विनीतता का परिचय दे कि गुरुओं की किसी मूक चेष्टा से ही उनके मनोगत भावों को समझकर उनकी पूर्ति के लिए शीघ्र प्रयासशील बने । यह उसकी योग्यता और गुरुचरणानुरक्ति की परीक्षा के लिए एक उत्तम कसौटी है । इसके अतिरिक्त यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि गुरुजनों की विनय पर बार-बार जो इतना, बल दिया गया है उसका मुख्य प्रयोजन विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति है । गुरुचरणों की आराधना के बिना शिष्य की अन्तरात्मा में ज्ञान-ज्योति का प्रदीप्त होना सुकर तो क्या बहुत दुष्कर ही समझना चाहिए, अतः ज्ञानामृत के पिपासु शिष्य का यही धर्म है कि अपने आप को गुरुचरणों में समर्पित कर दे, ताकि उसका अक्षय सुख प्राप्ति का मार्ग नितान्त सरल बन सके ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 99 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं