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तवो समायारि-तप समाचारी, समाहि—समाधि, संवुडे संवृत—आश्रव से रहित, पंचवयाइं—पांच व्रतों को, पालिया–पालन करके, महज्जुई—महाद्युति वाला होता है। __मूलार्थ—वह विनीत शिष्य जो पूज्य-शास्त्र और सर्व प्रकार के संशयों से रहित है, मनोरुचि
और कर्म-सम्पदा में रहता है तथा तप-समाचारी और समाधियुक्त आश्रव से रहित, पांच महाव्रतों का पालन करके महान् प्रकाश वाला हो जाता है। ___टीका इस गाथा में विनय-धर्म के महत्त्व की चर्चा बड़ी सुन्दर शब्दावली में की गई है। विनय-धर्म की इससे अधिक और क्या महिमा हो सकती है कि उसके उपासक को जनता पूज्यशास्त्र की उपाधि से अलंकृत करती है, अर्थात् उसका अध्ययन किया शास्त्र औरों की अपेक्षा अधिक पूज्य समझा जाता है तथा उसके श्रुत-ज्ञान को अन्य सर्व साधारण की अपेक्षा अधिक परिष्कृत, असंदिग्ध
और आदरणीय माना जाता है, क्योंकि उसने गुरु-चरणों में रहकर विनय-धर्म की सतत आराधना करते हुए श्रुत का सम्यक् अध्ययन किया है और गुरुजनों की मनःरुचि के अनुसार सदैव आचरण करने से उस विनीत शिष्य को 'मनोरुचि' भी कहते हैं तथा वह शिष्य जो कि इस समय पूज्य-शास्त्र
और विगत-संशय माना जा रहा है—अधीतागम अथवा सर्वप्रिय होने के कारण सदा गुरु-चरणों में निवास करता है। आवश्यकीय आदि दशांग समाचारी' उसकी कर्मसम्पदा—कर्मसम्पत्ति है तथा तप समाचारी' बाह्य और आभ्यन्तर तप के अनुष्ठान करने में भी वह पूर्ण निपुण होता है एवं समाधि-युक्त और आश्रव-रहित होकर पांच महाव्रतों का यथावत् पालन करके वह विनीत शिष्य लोक में एक अद्वितीय तेजस्वी हो जाता है एवं गुरुजनों से विनयपूर्वक अध्ययन किया हुआ शास्त्र ही पूज्य . और उनसे विनय-पूर्वक प्राप्त किया श्रुतज्ञान ही सन्देह-रहित होता है। इन्हीं दो बातों को स्पष्ट करने के लिए उक्त गाथा में 'स शब्द' का प्रयोग किया गया है। तथा श्रत का पूर्णतया अध्ययन कर चकने के बाद भी गुरुजनों के निकट रहने का शिष्य को जो आदेश दिया गया है उसका प्रयोजन केवल स्वेच्छाचार का निरोध करना है। इसके अतिरिक्त कर्म-सम्पदा में स्थित रहने की आज्ञा करने का अभिप्राय सूत्रकार का यह है कि केवल ज्ञानमात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु उसके साथ क्रिया शुद्ध आचार की भी आवश्यकता है और कर्मसम्पदा के साथ जो तप-समाचारी का उल्लेख किया गया है उसका तात्पर्य यह है कि क्रिया के साथ तपोऽनुष्ठान की भी नितान्त आवश्यकता है, परन्तु तप का अनुष्ठान भी चित्त की समाधि के बिना व्यर्थ है। इसलिए गाथा में समाधियुक्त होने का आदेश दिया गया है और समाधि के लिए प्रथम आश्रव-द्वारों का निरोध करके संवृत होना आवश्यक है, अतः संवृत का उल्लेख किया गया है, परन्तु आश्रवों का निरोध भी तभी शक्य है जब कि पांच महाव्रतों का यथावत् पालन किया जाए। अतः पांच महाव्रतों के अनुष्ठान से. आश्रव-द्वारों का निरोध करना और आश्रव-निरोध से संवर की प्राप्ति करना, संवर से समाधि की उपलब्धि और समाधि से
१. इसका वर्णन इसी सूत्र के २६वें अध्ययन में देखें। २. इसका वर्णन इसी सूत्र के ३०वें अध्ययन में किया गया है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 103 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं