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टीका—यदि गुरुजन आचार्य, उपाध्याय और स्थविर साधु आदि किसी कारण वश असन्तुष्ट अथवा कुपित हो जाएं तो विनयशील बुद्धिमान् शिष्य का यह धर्म है कि वह उन्हें अनुनय-विनयं आदि हर प्रकार से सन्तुष्ट एवं प्रसन्न करने का प्रयत्न करे, क्योंकि गुरुजनों की तुष्टि और शान्ति से ही शिष्य के ज्ञान-ध्यान और समाधि की स्थिरता रह सकती है। इसलिए आचार्य महाराज यदि कुपित हो जाएं तो शिष्य को चाहिए कि बड़ी नम्रता से विश्वास और प्रीतिजनक शब्दों द्वारा उन्हें प्रसन्न करता हुआ उनकी क्रोध रूप अग्नि-ज्वाला को उपशान्त करने का प्रयल करे और दोनों हाथ जोड़कर उनके चरणों में प्रार्थना करे कि “भगवन्! आप बड़े कृपालु हैं और मैं आपकी कृपा का तुच्छ पात्र हूं तथा आप मेरे सदा पूज्य हैं। मैं आपका सदा अनुचर हूं। मुझे मेरे इस अज्ञात अपराध के लिए क्षमा प्रदान करें। भविष्य में मैं जिस कार्य से आपको असन्तोष पैदा हो ऐसा आचरण कभी नहीं करूंगा।" इस प्रकार के हार्दिक विनयाचार से गुरुजनों की फिर से प्रसन्नता प्राप्त कर लेने वाला शिष्य निःसन्देह आसन्नभवी–निकट-संसारी हो जाता है, क्योंकि आचार-सम्पन्न गुरुजनों की कृपा में भी कुछ कम चमत्कार नहीं है। अब विनयाचार विषयक कुछ अन्य ज्ञातव्य बातों का उल्लेख किया जाता है
धम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धेहायरियं सयां । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छइ ॥ ४२ ॥
धर्मार्जितं च व्यवहारं, बुद्धैराचरितं सदा ।
तमाचरन् व्यवहारं, गहाँ नाभिगच्छति ॥ ४२ ॥ पदार्थान्वयंः-धम्मज्जियं–धर्म से उत्पन्न हुआ, च-और, सया-सदा, बुद्धेहायरियंतत्त्ववेत्ता आचार्यों द्वारा आचरण किया गया जो, ववहारं—व्यवहार है, तं—उस, ववहारं व्यवहार को, आयरंतो—आचरण में लाता हुआ, गरहं—निन्दा को, नाभिगच्छइ. प्राप्त नहीं होता।
मूलार्थ—जो व्यवहार धर्म से उत्पन्न हुआ है और तत्त्ववेत्ता आचार्यों ने जिसका आचरण किया है उस व्यवहार को आचरण में लाने वाला पुरुष संसार में कभी निन्दा को प्राप्त नहीं होता। ___टीका—इस गाथा में विनयशील मुमुक्षु जनों को परम्परागत शुद्ध व्यवहार के अनुष्ठान करने का आदेश दिया गया है। जो व्यक्ति शास्त्रों में वर्णित किए गए और प्राचीन ऋषियों द्वारा आचरण में लाए गए व्यवहार-मार्ग का अनुसरण करता है वह संसार में कभी भी निन्दा का पात्र नहीं बनता। इसके विपरीत स्वेच्छा-कल्पित व्यवहार का अनुष्ठान साधु-पुरुषों में अवश्य गर्हित समझा जाता है
और समझा जाना चाहिए। इसलिए भद्र-पुरुषों को सदा शास्त्रविहित परम्परागत व्यवहार का ही पालन करना चाहिए। परम्परागत शुद्ध व्यवहार की उत्पत्ति का मूल क्षमा आदि दशविध यति-धर्म में है, इसीलिए इसको धर्मार्जित (धर्म से एकत्रित किया गया, धर्म से उत्पन्न किया गया) कहते हैं और धर्म-प्राण पूर्वाचार्यों ने भी इसी हेतू से इसको आचार-मार्ग में लाने का प्रयत्न किया है। इसलिए उक्त
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 98 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं