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इनका जो व्यवहार है, वह बहुत ही तुच्छ है। इनकी दृष्टि में मैं एक तुच्छ दास के तुल्य हूं। जैसे कठोर हृदय वाले मालिक को अपने नौकर पर दया नहीं आती, इसीलिए वह उसके जरा से अपराध पर भी आपे से बाहर होकर उसकी कठोर ताड़ना करने लग जाता है, इसी प्रकार इनको भी मेरे ऊपर किसी प्रकार की करुणा नहीं है। इनकी कठोर शिक्षा अब मुझसे सहन नहीं हो सकती। इस प्रकार की विपरीत भावनाओं से वह मूर्ख शिष्य अपनी आत्मा को मलिन करता हुआ उसे सन्मार्ग की ओर ले जाने के बदले कुमार्ग का ही यात्री बना देता है।
यहां पर भी विचार-भेद अथवा दृष्टि-भेद ही काम कर रहा है। विनीत शिष्य ने गुरुजनों के शासन में काम करने वाली हित-कामना का परिज्ञान नहीं होता है। इसलिए फलश्रुति में भी विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है। विनीत को तो वह शिक्षा मोक्षमार्ग का पथिक बना देती है और अविनीत के लिए वह भारी कर्मबन्ध का हेतु बना देती है, यही अध्यवसाय मनोगत विचार-भेद की विचित्रता है। अब शास्त्रकार विनीत शिष्य के अन्य उत्तम कर्तव्यों का वर्णन करते हुए कहते हैं
न कोवए आयरियं, अप्पाणं पि न कोवए । बुद्धोवघाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए ॥ ४०॥
न कोपयेदाचार्यम्, आत्मानमपि न कोपयेत् ।
बुद्धोपघाती न स्यात्, न स्यात तोत्रगवेषकः ॥ ४०॥ पदार्थान्वय:-आयरियं—आचार्य पर, न कोवए—क्रोध न करे, अप्पाणं पि—अपनी आत्मा पर भी, न कोवए-क्रोध न करे, बुद्धोवघाई-बुद्धों का घात करने वाला, न सिया न होवे, तोत्तगवेसए—छिद्रों का गवेषक, न सिया—न होवे।
मूलार्थ आचार्य पर क्रोध न करे, अपनी आत्मा पर भी क्रोध न लाए, तत्त्ववेत्ताओं का घातक न हो और छिद्रों अर्थात् दोषों को देखने वाला भी न हो।
टीका—जैसा कि ऊपर बताया गया है सभी पुरुष एक ही प्रकृति तथा विचारों के नहीं होते। अनेक शिष्यों को दी गई शिक्षा तो अज्ञानता के कारण शान्ति के बदले क्रोध की उत्पत्ति का हेतु बन जाती है, इसलिए अनेक मूढ़ शिष्य तो शिक्षा देने वाले गुरुजनों पर ही क्रुद्ध हो जाते हैं और क्रोध में आकर मनुष्य कितने और किस प्रकार के अनर्थ कर बैठता है यह सब को भली भांति विदित ही है, इसके लिए किसी उदाहरण की आवश्यकता नहीं है। अतः गुरुजनों की सेवा में रहने वाले बुद्धिमान शिष्य को क्रोध और उससे होने वाले अनर्थों को अपने पास तक भी फटकने न देना चाहिए, इसी में उसका श्रेय है। बस इसी विषय को ऊपर दी गई मूल गाथा में स्पष्ट करने का स्तुत्य प्रयत्न किया गया है।
विनयाचार में प्रवृत्त होने वाले बुद्धिमान् शिष्य के लिए उचित है कि गुरुजनों द्वारा कठोर शासन करने पर भी वह उनके ऊपर क्रोध न लाए। इसके सिवाय वह अपने आत्मा पर भी कुपित न हो,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 96 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं