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सकती और साधु-जीवन तो साधारण मनुष्य-जीवन की अपेक्षा बहुत ही अधिक उत्कर्षता को लिए हुए है, परन्तु उस उत्कर्षता की मूल भित्ति अधिकांश समय के सदुपयोग पर ही अवलम्बित है। साधुचर्या में तो जीवन का एक-एक समय भी चिन्तामणि रत्न के समान अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिए साधु को जहां तक हो सके बड़ी सावधानी से अपने धार्मिक कृत्यों का यथासमय अनुष्ठान करना चाहिए। जो साधु प्रमादवश समय को व्यर्थ खो देते हैं, उनका अधःपतन अवश्यंभावी है। अतः समय को कभी भी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए।
यहां पर इतना और भी ध्यान में रख लेना चाहिए कि किसी भी कार्य को सरल और सुव्यवस्थित बनाने के लिए कालक्रम अथवा समय-विभाग की बड़ी आवश्यकता है। समय का विभाग किए बिना कोई भी कार्य सुचारू रूप से पूर्ण नहीं हो सकता। इसी विचार से शास्त्रकारों ने साधु-जीवन में भी आचरणीय धार्मिक कृत्यों का कालक्रम समय-विभाग नियत कर दिया है, ताकि उसकी प्रतिदिन की धार्मिक क्रिया में किसी प्रकार की अव्यवस्था न होने पाए। अब एषणा समिति के विषय में कुछ और नियमों का वर्णन किया जाता है—
परिवाडीए न चिठेज्जा, भिक्खू दत्तेसणं चरे । पडिरूवेण एसित्ता, मियं कालेण भक्खए ॥ ३२ ॥
परिपाट्यां न तिष्ठेत्, भिक्षुर्दत्तैषणां चरेत् ।
- प्रतिरूपेणैषयित्वा, मितं कालेन भक्षयेत् || ३२ || पदार्थान्वयः–परिवाडीए पंक्ति में, न चिठेज्जा—न खड़ा होवे, भिक्खू भिक्षु, दत्तेसणं—दिया हुआ, एषणीय, चरे—ग्रहण करे, पडिरूवेण—साधु के वेष से, एसित्ता—गवेषणा करके, मियं-प्रमाण-पूर्वक, कालेण–शास्त्रोक्त काल में, भक्खए—आहार करे । ____मूलार्थ–साधु पंक्ति–जीमनवार में जाकर खड़ा न हो किन्तु गृहस्थ द्वारा दिए हुए, एषणीयशुद्ध आहार को ग्रहण करे और साधु के वेष से गवेषणा करके शास्त्रोक्त काल में प्रमाण-पूर्वक आहार करे।
टीका-इस गाथा में साधु की भिक्षाचर्या से सम्बन्ध रखने वाली बहुत-सी जानने योग्य बातों का उल्लेख किया गया है। जहां पर प्रीतिभोज अथवा विवाह आदि अन्य किसी निमित्त से जीमनवार किया गया हो ऐसे स्थान पर साधु को आहार के लिए कदापि न जाना चाहिए, क्योंकि ऐसे स्थान पर भिक्षा के निमित्त जाकर खड़ा होना साधु के लिए अप्रीति-असद्भाव का कारण बन जाता है। अतः ऐसे स्थान से साधु कभी भिक्षा न लाए, किन्तु गृहस्थ का दिया हुआ निर्दोष आहार ही साधु को ग्रहण करना चाहिए, परन्तु वह निर्दोष आहार भी साधु को तभी कल्पता है जबकि उसने उस आहार को अपने वेष में शास्त्र-विहित काष्ठमय पात्र में ग्रहण किया हो । अन्य वेष से ग्रहण किया हुआ आहार साधु के उपयोग में नहीं आ सकता।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 87 /विणयसुयं पढमं अज्झयणं ।