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यह अर्थ भी उपयुक्त ही प्रतीत होता है, क्योंकि काम कर चुकने के पश्चात् वह स्थान भी प्रायः शून्य ही हो जाता है। ग्रामों में तो आज भी इसके उदाहरण मौजूद हैं। ___भूल हो जाने पर गुरुजनों के द्वारा दी गई शिक्षा को विनयशील शिष्य किस प्रकार ग्रहण करे, अब इस विषय का वर्णन करते हैं
जं मे बुद्धाऽणुसासन्ति, सीएण फरुसेण वा । मम लाभो त्ति पेहाए, पयओ तं पडिस्सुणे ॥ २७ ॥ ___यन्मां बुद्धा अनुशासन्ति, शीतेन परुषेण वा ।
.. मम लाभ इति प्रेक्ष्य, प्रयतस्तत् प्रतिश्रृणुयात् ॥ २७ ॥ पदार्थान्वय:-जं—जो, मे—मुझे, 'बुद्धा–आचार्य, अणुसासंति—शिक्षा देते हैं, सीएण-शीतल वचनों से, वा—अथवा, फरुसेण—कठोर वाक्यों से वह, मम—मेरे, लाभो—लाभ के लिए ही है, त्ति—इस प्रकार, पेहाए—विचार करके, पयओ—प्रयत्न से युक्त, तं—उसको, पडिस्सुणे स्वीकार करे। ___मूलार्थ—आचार्य महाराज मेरे को कोमल अथवा कठोर वाक्यों से जो शिक्षा देते हैं, वह सब मेरे लाभ के लिए है, इस प्रकार से विचार करता हुआ शिष्य प्रयत्नपूर्वक गुरुजनों की शिक्षा को ग्रहण करे।
टीका–उक्त गाथा के भाव का सारांश यह है कि किसी प्रकार की भूल हो जाने पर उसके सुधार के निमित्त गुरुजन यदि किसी प्रकार की शिक्षा देने में प्रवृत्त हों तथा उस शिक्षा-प्रवृत्ति में यदि वे कोमल अथवा कठोर वाक्यों का भी प्रयोग करें तो शिष्य को उचित है कि वह गुरुजनों के इस उपदेश को अपने लिए परम हितकारी समझकर श्रद्धापूर्वक उसे स्वीकार करे। तात्पर्य यह है कि गुरुजनों की हित-शिक्षा की किसी रूप में भी अवहेलना न करे। संयमी पुरुष गुरुओं की शिक्षा पर विश्वास रखता हुआ मोक्षमार्ग का अधिकारी बनने के साथ-साथ धर्म के मर्म का भी ज्ञाता हो जाता है तथा बहुश्रुत हो जाने से स्थविर पद को भी प्राप्त कर लेता है। इसलिए गुरुजनों की हित-शिक्षा में अनेक प्रकार के प्रशस्त लाभ निहित हैं, यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए।
अब शिष्य की पात्रता के अनुसार गुरुजनों की शिक्षा का जो प्रभाव होता है, उसके विषय में कहते हैं
अणुसासणमोवायं, दुक्कडस्स य चोयणं । हियं तं मण्णई पण्णो, वेसं होइ असाहुणो ॥ २८॥
अनुशासनमौपायं दुष्कृतस्य च नोदनम् । . हितं तन्मन्यते प्राज्ञः द्वैष्यं भवत्यसाधोः ॥ २८ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 83 /विणयसुयं पढमं अज्झयणं