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पदार्थान्वयः– अणुसासणं - अनुशासन, उवायं- — उपाय - युक्त, य— और, दुक्कडस्स - पाप का, चोयणं — निवारक होता है, हियं — हितरूप, तं— उसको, पण्णो– बुद्धिमान्, मण्णई — मानता है, असाहुणो—असाधु के लिए वह अनुशासन, वेसं - द्वेष का कारण, होइ― होता है।
मूलार्थ – गुरुजनों का पाप को दूर करने वाला उपाय - युक्त हित-रूप अनुशासन बुद्धिमान् के लिए तो हित का कारण होता है और असाधु पुरुष के लिए वही अनुशासन द्वेष का हेतु बन जाता है।
टीका - इस गाथा में गुरुजनों के अनुशासन को विनीत और अविनीत शिष्य किस रूप में ग्रहण करते हैं इस विषय को कुछ स्पष्ट किया है। यद्यपि गुरुजनों की शिक्षा में विनीत और अविनीत दोनों ही शिष्यों के प्रति किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं है, तथापि ग्रहण करने वाले पात्र के अनुसार उसमें भिन्नता आ जाती है । जिस प्रकार एक ही सरोवर से जल ग्रहण करने वाले गौ और सांप उस पिये हुए जल की अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार परिणमन करते हैं, इसी प्रकार गुरुजनों से प्राप्त शिक्षा को विनीत और विनय-रहित शिष्य भी अपने-अपने स्वभाव के अनुसार ही उसे ग्रहण करते हैं एवं वह पान किया हुआ जल जैसे गाय में दुग्ध रूप में परिणत होता है और सर्प में वह जल विष के रूप में परिणत हो जाता है, ऐसे ही पापों को दूर करने वाला गुरुजनों का अनुशासन बुद्धिमान् विनीत शिष्य के लिए तो परम हित के देने वाला होता है और असाधु अर्थात् अविनीत शिष्य के लिए वह द्वेष का कारण बन जाता है एवं जिस प्रकार बुद्धिमान शिष्य में गुरुजनों का उक्त अनुशासन उत्तरोत्तर विनय-धर्म में उत्कर्ष पैदा करने वाला होता है, उसी प्रकार असाधु-अयोग्य शिष्य में उसका द्वेषरूप विपरीत परिणमन उत्तरोत्तर अविनय बुद्धि का पुष्ट साधन बन जाता है। इसलिए अनुशासन-कर्त्ता गुरुजनों को शिक्षा देते समय शिष्य-समुदाय की पात्रता - अपात्रता का अवश्य विचार कर लेना चाहिए, ताकि उनके अनुशासन में किसी प्रकार की विपरीतता न आने पाए, , क्योंकि कुपात्र में डाला हुआ हित शिक्षारूप दुग्धामृत भी विकृति भाव को प्राप्त होकर विष के तुल्य हानिकारक हो जाता है। यहां पर 'हित' शब्द में ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के हितों को ग्रहण किया गया है।
अब इसी विषय को और भी स्पष्ट किया जाता है
हियं विगयभया बुद्धा, फरुसंपि अणुसासणं । वेसं तं होइ मूढाणं, खन्तिसोहिकरं पयं ॥ २६ ॥ हितं विगतभया बुद्धाः परुषमप्यनुशासनम् । द्वैष्यं तद् भवति मूढानां क्षान्तिशुद्धिकरं पदम् ॥ २६॥
पदार्थान्वयः – विगयभया — भय रहित, बुद्धा — तत्त्ववेत्ता पुरुष, फरुसंपि — कठोर भी, अणुसासणं- अनुशासन को, हियं-हित रूप मानते हैं, तं - वह अनुशासन, मूढाणं - मूर्खो के लिए, वेस होइ - द्वेष का कारण बन जाता है जो, खंति - क्षमा, सोहिकरं— और शुद्धि के करने वाला, पयं पद है ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 84 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं