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गाथा में 'कयाइवि' पद इसलिए दिया गया है कि विनीत शिष्य रोगादि की अवस्था में भी गुरुजनों के वचनों का अनादर न करे। यहां 'आलवंते' शब्द में 'आ' उपसर्ग ईषत् अर्थ का बोधक है, जिसका तात्पर्य यह है कि गुरुजनों के थोड़ा-सा बोलने पर भी उनके वचन को शीघ्रता से ग्रहण करने का प्रयत्न करे, किन्तु उनके वचन की उपेक्षा कदापि न करे। अब शास्त्रकार फिर इसी विषय का पुनः वर्णन करते हुए कहते हैं
आसणगओ न पुच्छेज्जा, नेव सेज्जागओ कयाइवि । आगम्मुक्कुडुओ सन्तो, पुच्छिज्जा पंजलीउडो ॥२२॥
आसनगतो न पृच्छेत्, नैव शय्यागतः कदापि च |
आगम्योत्कुटुकः सन्, पृच्छेत् प्रांजलिपुटः ॥ २२ ॥ पदार्थान्वयः—आसणगओ—आसन पर बैठा हुआ, न पुच्छेज्जा—न पूछे, कयाइवि—कदाचित् भी, सेज्जागओ-शय्या पर बैठा हुआ, नेव—न पूछे, आगम्म—आकर के, उक्कुडुओ संतो—आसन को छोड़ता हुआ, पंजलीउडो—हाथों को जोड़कर, पुच्छिज्जा—पूछे ।
मूलार्थ शिष्य को चाहिए कि वह आसन पर बैठा हुआ गुरुजनों से कुछ न पूछे तथा शय्या पर बैठा हुआ भी न पूछे, आसन को छोड़कर गुरुओं के पास आकर हाथ जोड़कर (सूत्रादि का अर्थ एवं सेवा की आज्ञा के विषय में) पूछे। ..
टीका—इस गाथा में शिष्य की अध्ययन-कालीन विनय-चर्या का उल्लेख किया गया है। शिष्य को यदि अपने किसी पाठ्य विषय में कोई सन्देह हो तो उसकी निवृत्ति के लिए वह अपने गुरुजनों से किस प्रकार विनय-युक्त होकर पूछे तथा किस प्रकार पूछने से गुरुओं का अविनय नहीं होता है, इसी भाव को उक्त गाथा में व्यक्त किया गया है। शिष्य को यदि कोई बात गुरुओं से पूछनी हो तो वह अपने आसन पर ही बैठा हुआ न पूछे और शय्या पर पड़ा हुआ भी वह अपने गुरुजनों से किसी प्रकार का वार्तालाप न करे, किन्तु अपने आसन आदि का त्याग करके ही गुरुजनों के समीप बद्धांजलि होकर अपने सन्देह को पूछे । आसन अथवा शय्या पर बैठे हुए पूछने पर शिष्य का औद्धत्य प्रकट होता है। इससे एक तो गुरुजनों का अपमान सूचित होता है और दूसरे शिष्य के विनय-धर्म पर लांछन लगता है। इसलिए विनीत शिष्य का यह धर्म है कि वह गुरुजनों से जो कुछ भी पूछे उसमें किसी प्रकार की अविनीतता का समावेश न होने पाए, इस बात की पूरी सावधानी रखे।
गाथा में जो 'उक्कडुओ' शब्द आया है, उसका संस्कृत में 'उत्कुटुकः' रूप बनता है जिसका अर्थ है मुक्तासन। इसके अतिरिक्त गुरुजनों की अपेक्षा अधिक ज्ञान रखने वाला शिष्य भी उस गुरुजनों की सेवा-भक्ति का कभी परित्याग न करे, यह भी उक्त गाथा का फलितार्थ है।
गुरुजनों का कर्तव्य उक्त प्रकार के विनयाचार से युक्त शिष्य के प्रति गुरुजनों का क्या कर्तव्य होना चाहिए, अब
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 79 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं