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प्रभाव गुरुजनों के अतिरिक्त उसके निकटवर्ती अन्य व्यक्तियों पर भी पड़ता है । इस कारण अन्य व्यक्तियों के जीवन में भी आशातीत परिवर्तन हो जाता है । इसलिए अविनीतता का परित्याग करके विनयशील बनना ही मुमुक्षु के जीवन का प्रधान लक्ष्य है ।
अब गुरुजनों के चित्तानुवर्ती होने की विधि बताते हैं—
नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए । कोहं असच्चं कुव्वेज्जा, धारेज्जा पियमप्पियं ॥ १४ ॥ पृष्ट व्यागृणीयात् किंचित्, पृष्टो वा नालीकं वदेत् । क्रोधमसत्यं कुर्यात्, धारयेत् प्रियमप्रियम् || १४ ||
पदार्थान्वयः—–अपुट्ठो— बिना बोलाये, किंचि—– किंचित्मात्र भी, न–न, वागरे – बोले, वा – अथवा, पुट्ठो – पूछने पर, अलियं— झूठ, न वए―न बोले, कोहं क्रोध को, असच्चं —-असत्य - निष्फल, कुव्वेज्जा — करे, पियं— प्रिय वचन और अप्पियं— अप्रियं वचन को, धारेज्जा - धारण करे ।
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मूलार्थ - शिष्य को चाहिए कि वह बिना बुलाए थोड़ा भी न बोले और बोलने पर झूठ कभी न बोले, क्रोध को निष्फल बना दे तथा प्रिय और अप्रिय वचनों को बिना राग-द्वेष के धारण करे ।
टीका - इस गाथा में शिष्य के लिए यह शिक्षा दी गई है कि वह बिना बोलाए थोड़ा-सा भी न बोले और यदि किसी बात पर उसे बोलाया जाए तो वह झूठ कभी न बोले । गुरुजनों के किन्हीं तिरस्कारयुक्त वचनों को सुनकर वह अपने मन में क्रोध न लाए। यदि किसी कारणवशात् क्रोध आ तो उसे क्रियान्वित न होने दे, अर्थात् क्रोध के कटु फल का विचार करते हुए उसे निष्फल बना दे। क्योंकि क्रोध से मन में परिताप पैदा होता है, क्रोध से उद्वेग की वृद्धि होती है, क्रोध वैरं का
है तथा क्रोध से सुगति का नाश और दुर्गति की प्राप्ति होती है, इसलिए क्रोध सर्वथा हेय है। इसी प्रकार साधक मान, माया और लोभ आदि कषायों को भी उक्त विचार - सरणि से निष्फल बनाने का प्रयत्न करे। जिस प्रकार विचार - प्रवण अन्तर्मुख- वृत्ति से क्रोध आदि कषायों को निष्फल बनाया जा सकता है उसी प्रकार अपनी शान्त धारणा से समता को ग्रहण करता हुआ साधक राग-द्वेष से रहित होने का प्रयत्न करे। जिसके अन्तःकरण में समता देवी का साम्राज्य होता है, उसके लिये निन्दा और स्तुति दोनों समान कक्षा में आ जाते हैं। वह अपने विषय में किसी के स्तुति-युक्त वचनों को सुनकर प्रसन्न नहीं होता और निन्दा - सूचक शब्दों से किसी पर द्वेष नहीं करता ।
इसके अतिरिक्त विनीत शिष्य का दूसरा कर्त्तव्य यह बताया गया है कि वह गुरुजनों के प्रिय अथवा अप्रिय वचनों को सुनकर मन में किसी प्रकार की प्रसन्नता अथवा क्षुब्धता पैदा न करे, किन्तु उनके प्रिय तथा अप्रिय वचनों को अपने लिए नितान्त हितकारी समझकर उनको अपने शान्त हृदय में स्थान दे । . तात्पर्य यह कि गुरुजनों के प्रिय तथा अप्रिय बर्ताव में किसी प्रकार का अन्तर न समझता हुआ
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 72 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं