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नैसर्गिक चंचलता को सदा के लिए छोड़ देता है। मन के स्थिर होने पर उसकी आज्ञा में चलने वाली इन्द्रियां भी अपने स्वेच्छाचार को त्याग देने के लिए विवश हो जाती हैं। इस प्रकार मन और इन्द्रियों की चंचलता विषयोन्मुख प्रवृत्ति के नष्ट हो जाने से तन्मूलक आत्मा की राग-द्वेषात्मक प्रवृतियां भी रुक जाती हैं, उनमें स्थिरता, समता और उज्ज्वलता का प्रवेश हो जाता है। इससे संयमी आत्मा उन्मार्गगामी बनने के स्थान पर केवल सन्मार्ग का ही उत्तरोत्तर अनुसरण करता चला जाता है। इसलिए संयम और तप के द्वारा ही सच्चा आत्म-दमन, अथवा इन्द्रिय-निग्रह हो सकता है।
- इसके विपरीत बल-पूर्वक जो इन्द्रियों का निग्रह किया जाता है, वह वास्तव में आत्म-निग्रह नहीं है, क्योंकि उसमें मन की स्वाभाविक विकति—चंचलता में किसी प्रकार का अन्तर नहीं पडता. इसीलिए इसमें आत्मिक शान्ति का सर्वथा अभाव रहता है। वध-ताड़ना और बन्धन के द्वारा मनुष्य की शारीरिक चेष्टाएं कदाचित् रुक सकती हैं, किन्तु उसकी आभ्यन्तर की मानसिक वृत्ति पर इन बन्धनादिकों का कोई असर नहीं होता। इसलिए वध-बन्धनादि के द्वारा किया गया आत्म-दमन सर्वथा निष्प्रयोजन और निर्जीव मूर्ति के समान है। उससे न तो इन्द्रियों का निग्रह ही होता है और न आत्मा की राग-द्वेषात्मक भाव-परिणति में ही कोई अन्तर पड़ता है। ___उक्त गाथा में 'दमित' शब्द का स्थानापन्न जो 'दम्मंतो' शब्द है, उसका प्रयोग आर्ष ही समझना , चाहिए। अब शास्त्रकार विनयाचार के विषय में लिखते हैं
पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा । आवी वा जइ वा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि ॥ १७ ॥
प्रत्यनीकं च बुद्धानां, वाचाऽथवा कर्मणा ।
आविर्वा यदि वा रहसि, नैव कुर्यात् कदापि च || १७ ॥ पदार्थान्वयः-च-और, बुद्धाणं-आचार्यों की, पडिणीयं—प्रतिकूलता, वाया—वचन से, अदुव अथवा, · कम्मुणा—कर्म से, आवी—प्रत्यक्ष, वा–अथवा, जइ वा यदि फिर, रहस्से-एकान्त में, नेव-नहीं, कुज्जा—करे, कयाइ वि—कदाचित् भी।
मूलार्थ-योग्य शिष्य लोगों के समक्ष अथवा एकान्त में मन, वचन और शरीर से आचार्यों के प्रतिकूल आचरण कदाचित् भी न करे।
टीका-शिष्य को उचित है कि वह अपने आचार्यों एवं गुरुजनों की लोगों के समक्ष और परोक्ष में भी मन, वचन और काया इन तीनों के द्वारा कभी अविनय न करे। जैसे
आचार्यों पर आन्तरिक प्रेम न रखना मानसिक अविनय है। वचनों के द्वारा उनकी भर्त्सना करना वाचिक अविनय है। यथा—'तुम क्या जानते हो ?' तथा लोगों में उनके विरुद्ध बोलते हुए यह कहना कि 'मैंने तो इनको पढ़ाया हुआ है' इत्यादि तथा गुरुजनों के आसन आदि को उनकी आज्ञा के
पाड
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 75
/ विणयसुयं पढमं अज्झयणं