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अपने लिए दोनों को ही परम हितकर समझे, यही उसकी विनयशीलता की सच्ची कसौटी है।
यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि उक्त गाथा में “शिष्य को बिना बुलाए कभी बोलना न चाहिए" यह उपदेश केवल उत्सर्ग-मार्ग को लेकर दिया गया है, परन्तु अपवाद-मार्ग में तो जिस विषय पर बोलने से अपने गुरुजनों का महत्त्व बढ़ता हो और जो भाषण धर्म-वृद्धि में अधिक सहायक हो तथा जिस भाषण से किसी संदिग्ध धार्मिक तत्त्व की अधिक स्पष्टता होती हो, ऐसे स्थान में तो बिना पूछे भी वार्तालाप करने की शास्त्रों में मनाही नहीं की गई है, प्रत्युत शिष्टजनों तथा शास्त्र-प्रेमियों की दृष्टि में तो यह भाषण और भी अधिक महत्त्व का स्थान रखता है।
आत्म-दमन और उसका फलक्रोध आदि कषायों की निष्फलता आत्मा के दमन पर आधारित है, इसलिए अब उसी का वर्णन किया जाता है
अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य॥१५॥
आत्मा चैव दमितव्यः, आत्मैव खलु दुर्दमः ।
आत्मा दान्तः सुखी भवति, अस्मिल्लोके परत्र च ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः—अप्पा--आत्मा, च—पुनः, एव—निश्चय ही, दमेयव्वो—दमन करना चाहिए, अप्पा-आत्मा, हु—ही, खलु निश्चय से, दुद्दमो—दुर्जय है, अप्पा दंतो—दमन किया हुआ आत्मा, सुही—सुखी, होइ—होता है, अस्सि—इस, लोए-लोक में, य—और, परत्थ—परलोक में ।
मूलार्थ सर्वप्रथम अपनी आत्मा का ही दमन करना चाहिए, क्योंकि आत्मा ही दुर्जेय है, यह मनुष्य इस लोक और परलोक में आत्मा के दमन से ही सुखी होता है। ____टीका—यहां पर शास्त्रकार को आत्मा शब्द से मन और इन्द्रियों का ग्रहण अभीष्ट है, इसलिए इन्द्रियों और मन के दमन को ही आत्म-दमन कहा गया है। आत्मा में राग-द्वेषादि के जो भाव पैदा होते हैं, उनका कारण भी विषयोन्मुख मन और चक्षुरादि इन्द्रियां ही हैं। इन्हीं के वशीभूत होकर यह आत्मा उन्मार्ग पर चलने लग पड़ता है, इसलिए सब से पहले मुमुक्षु जीव को इन्हीं का दमन करना चाहिए और इन्हीं को वश में लाने का प्रयत्न करना चाहिए यही आत्म-दमन है। इसी को दूसरे शब्दों में आत्म-स्वाधीनता कहते हैं। आत्मा के दमन से अथवा यों कहिए कि इन्द्रियों के निग्रह से यह जीव इस लोक तथा परलोक दोनों में ही आनन्द-सुख का भागी होता है। आत्म-संयमी अथवा इन्द्रिय-निग्रही पुरुष की मनुष्य तो क्या देवता आदि भी पूजा करते हैं और परलोक-स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख तो आत्म-दमन के बिना असम्भव ही है। इसलिए ऐहिक तथा पारलौकिक सुख के अभिलाषी साधक को सबसे प्रथम आत्म-दमन अर्थात् इन्द्रिय-निग्रह करने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्म-दमन अथवा
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 73 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं