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पदार्थान्वयः–कसं—चाबुक को, गलियस्सेव—गलियार अर्थात् अड़ियल घोड़े की तरह, वयणं-गुरुओं के वचन को, मा—न, इच्छे—चाहे, कसं—चाबुक को, दटुं देखकर, व—जैसे, आइण्णे विनयवान् घोड़ा, पावगं—दुष्ट मार्ग को छोड़ देता है तद्वत्, परिवज्जए छोड़ देवे। ___ मूलार्थ जैसे दुष्ट घोड़ा चाबुक को बार-बार चाहता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरुओं के वचनों को बार-बार न चाहे, किन्तु जैसे विनीत घोड़ा चाबुक को देखकर ही बुरे मार्ग को छोड़ देता है उसी प्रकार विनयशील शिष्य भी गुरुजनों की दृष्टि आदि को देखकर ही अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों को छोड़ दे।
टीका—अड़ियल घोड़ा अपने स्वामी की इच्छानुसार सीधे मार्ग पर न चलने के कारण बार-बार चाबुक की मार खाता है और विनीत घोड़ा चाबुक को देखते ही अपने स्वामी की इच्छानुसार सुमार्ग अर्थात् अभीष्ट मार्ग की ओर चलने लगता है, इसी प्रकार विनीत शिष्य को चाहिए कि वह कुमार्गगामी उस दुष्ट घोड़े की तरह अपने गुरुजनों को बार-बार उपदेश देने के लिए बाध्य न करे, किन्तु सुमार्गगामी उस विनीत घोड़े की तरह अपने गुरुजनों की भाव-सूचक अंग-संचालनादि रूप मूक चेष्टाओं से ही अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों को सुधार ले, इसी में उसके विनय-धर्म की शोभा है।
इस गाथा में उपमा अलंकार का चित्र बड़ी ही सुन्दरता से खींचा गया है। जैसे विनीत घोड़ा अपने स्वामी के आदेशानुसार चलने से अभीष्ट स्थान पर पहुंच जाता है, उसी प्रकार गुरुजनों की आज्ञा का पालन करता हुआ विनयशील शिष्य भी अपने अभीष्ट स्थान-मोक्ष-मन्दिर तक पहुंच जाता है। यहां पर घोड़े के समान शिष्य, चाबुक के समान वचन और मार्ग के समान मोक्ष-मार्ग को समझना चाहिए तथा दुष्ट घोड़े के सदृश तो कुशिष्य है और विनीत घोड़े के समान सुशिष्य को समझे। इसके सिवाय अविनीत शिष्य के लिए चाबुक के आघात के समान तो गुरुजनों के आदेश रूप बार-बार वचन हैं और विनीत शिष्य के लिए चाबुक के देखने के समान उनकी भावसूचक अंग-चेष्टाएं हैं।
सारांश यह है कि जैसे सुशील घोड़ा अपने स्वामी के आदेश का पालन करता हुआ स्वयं सुखी रहकर अपने स्वामी को भी सुख पहुंचाता है, इसी प्रकार गुरुजनों के उपदेशानुसार चलने वाला विनीत शिष्य भी अपनी आत्मा में एक विलक्षण सुख का अनुभव करता हुआ अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्ति से गुरुजनों को भी प्रसन्न कर लेता है।
अब विनीत और अविनीत शिष्य के गुण-दोषों का विचार निम्नलिखित गाथा में वर्णन किया जाता है
अणासवा थूलवया कुसीला, मिउंपि चण्डं पकरंति सीसा । चित्ताणुया लहुदक्खोववेया, पसायए ते हु दुरासयंपि ॥१३॥
अनाश्रवाः स्थूलवचसः कुशीलाः; मृदुमपि चण्डं प्रकुर्वन्ति शिष्याः । चित्तानुगाः लघुदाक्ष्योपपेताः प्रसादयन्ति ते खलु दुराशयमपि || १३ ||
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 70
| विणयसुयं पढमं अज्झयणं