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लिए किया गया है। तात्पर्य यह है कि जैसे मूर्खता के कारण मृग गीत आदि में मूर्छित होकर अपने निकटवर्ती मृत्यु के भय को नहीं देख पाता, इसी प्रकार अविनीत आत्मा अर्थात् जीव दुर्गति के भय की उपेक्षा करता हुआ दुराचार में ही रम जाता है। “मृग' शब्द “जंगली पशु" के लिये भी प्रयुक्त होता है।
जैसे शूकर उत्तम और पुष्टि के देने वाले चावल आदि भोज्य पदार्थों की उपेक्षा करके विष्ठा आदि निकृष्टतम पदार्थों के सेवन में ही दत्तचित्त रहता है, ऐसे ही अविनीत आत्मा ज्ञान-दर्शन और चारित्र आदि सद्गुणों की आराधना का परित्याग करके अधमतम विषय-विकारों में ही अहर्निश रमण करता है। यहां पर ग्रन्थकार ने सदाचार को चावलों और कुत्सित आचार को विष्ठा से उपमित किया है, अतः अविनीत पुरुष को शूकर का सादृश्य देना ठीक ही है, जिससे कि सुज्ञ पुरुष दुराचार को विष्ठा के समान समझकर त्याग दें और सदाचार में रत होने का निरन्तर अभ्यास करें।
इस उपदेश के श्रवण के अनन्तर जिज्ञासु का जो कर्तव्य है, उसका प्रतिपादन निम्नलिखित गाथा में किया गया है
सुणियाऽभावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य । विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छन्तो हियमप्पणो ॥६॥
श्रुत्वाऽभावं शुन्याः, शूकरस्य नरस्य च ।
विनये स्थापयेदात्मानम्, इच्छन् हितमात्मनः ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः-सुणिया—सुन करके, अभावं—बुरे फल को, साणस्स—कुतिया का, सूयरस्स-शूकर का, य-और, नरस्स—पुरुष का, विणए–विनय में, ठवेज्ज–स्थापना करे, अप्पाणं—आत्मा को, इच्छन्तो–चाहता हुआ, हियं—हित, अप्पणो—आत्मा का।
मूलार्थ—इस लोक तथा परलोक में अपने हित को चाहने वाला पुरुष कुतिया, सूअर और असम्बद्धप्रलापी मनुष्य के कुत्सित फल को सुनकर अपनी आत्मा को विमय धर्म के अनुष्ठान में स्थापित करे लगाए।
टीकारुधिर, पूय-स्राव-युक्त शुनी अर्थात् कुतिया, विष्ठाभोजी शूकर और आचार-भ्रष्ट स्वेच्छाचारी पुरुष ये किसी स्थान पर भी सत्कार के पात्र नहीं बनते, बल्कि हर एक स्थान पर इनका तिरस्कार ही होता है। इनके विगर्हित आचरण ही इनकी इस दुर्दशा के कारण होते हैं। इस प्रकार कुत्सित आचरणों की हीन-फलता का विचार करके साधु पुरुष इनसे सदा पराङ्मुख रहकर अपने आत्मा को सदाचार-युक्त विनय-धर्म में ही स्थित करने का प्रयत्न करे। इसी में उसका ऐहिक तथा पारलौकिक हित है। यथा विनय से ज्ञान, ज्ञान से दर्शन, दर्शन से चारित्र, चारित्र से मोक्ष और मोक्ष से निराबाध अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार विनय-धर्म में ही आत्मा के असीम सुख का मूल निहित है। यहां पर गाथा में जो “अभाव" शब्द आया है, उसमें नञ् समास कुत्सा के अर्थ में है
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 64 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं