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णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स
अह विणयसुयं पढम अन्झयणं
अथ विनयश्रुतं प्रथममध्ययनम्
संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो । विणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुब्बिं सुणेह मे ॥ १ ॥
संयोगाद् विप्रमुक्तस्य, अनगारस्य भिक्षोः ।
विनयं प्रादुःकरिष्यामि, आनुपूर्व्या शृणुत मे || १ || पदार्थान्वयः-संजोगा—संयोग से, विप्पमुक्कस्स–विप्रमुक्त, अणगारस्स–अनगार, भिक्खुणो—भिक्षु का, विणयं–विनय, पाउकरिस्सामि—प्रकट करूंगा, आणुपुब्बिं अनुक्रम से, मे—मुझ से, सुणेह—सुनो। ___मूलार्थ मैं संयोग से विप्र-मुक्त अर्थात् रहित अनगार भिक्षु के विनय-धर्म को प्रकट करूंगा, आप मुझ से उसको श्रवण करें।
टीका इस गाथा में शास्त्रकार त्यागी महात्मा जनों के विनय-धर्म के वर्णन की प्रतिज्ञा करते हुए उसके श्रवण करने का भव्य पुरुषों को उपदेश करते हैं। सांसारिक पदार्थों का विशिष्ट संसर्ग ही दुःख का मूल कारण है, अतः अनगार भिक्षु के लिए सब से प्रथम उस संसर्ग का परित्याग ही परम आवश्यक है, अन्यथा उसे अपने अभिलषित पद की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। यद्यपि मूल गाथा में केवल सामान्यरूप से ही 'संयोग' शब्द अभिहित हुआ है, तथापि भिक्षु शब्द के साथ सम्बन्धित होने से यह अपने विशेष अर्थ का भी स्फुटतया भान करा रहा है।
. आगमवेत्ताओं ने संयोग के दो भेद माने हैं—एक बाह्य और दूसरा आभ्यन्तर। माता-पिता एवं धन-धान्यादि आदि इष्ट पदार्थों का सम्बन्ध बाह्य संयोग है और क्रोध, मान; माया, लोभ आदि की तीव्र इच्छा का नाम आभ्यन्तर संयोग है। जिस व्यक्ति ने इन दोनों प्रकार के संयोगों का ज्ञान-वैराग्य द्वारा दृढ़ता-पूर्वक परित्याग करके 'अनगार भिक्षु' पद ग्रहण किया है उसी महापुरुष के विनय-धर्म का यहां पर उल्लेख किया गया है।
. श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 57 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं