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अनगार—अगार का अर्थ है – घर । उससे जो रहित हो, अर्थात् जिसने घर-बार आदि का परित्याग कर दिया हो, उसे अनगार कहते हैं । अगार अर्थात् घर भी द्रव्य और भाव भेद से दो प्रकार का है। लकड़ी, पत्थर, मिट्टी, चूना आदि से बना हुआ घर द्रव्य - अगार है और जिनके प्रभाव से यह संसारी जीव नाना प्रकार की आपदाओं को झेलता है उन पापकर्मों के समुदाय को भाव-अगार कहते हैं। इन दोनों प्रकार के अगारों का सर्वथा परित्याग करने वाला भिक्षु अनगार कहलाता है। इस प्रकार निर्ममत्व भाव के अवलम्बन से जिसने द्रव्य रूप अगार का परित्याग किया हो और पाप कर्म के. विपाक से उत्पन्न होने वाली दुःख - परम्परा का अनुभव करते हुए दुःख के कारणीभूत मोहनीय आदि कर्मों के क्षय करने की तीव्र भावना से जिसने भिक्षु-चर्या का अनुसरण किया हो उसी अनगार महात्मा पुरुष के विनय-धर्म का यहां पर आरम्भ में वर्णन करने की ग्रन्थकार प्रतिज्ञा करते हैं।
भिक्षु - सामान्य रूप से देखा जाए तो भिक्षु शब्द का अर्थ केवल भीख मांगकर खाने वाला होता है, परन्तु भिक्षु शब्द का ऐसा निकृष्ट अर्थ यहां पर अभिप्रेत नहीं है, और न ही ऐसे अर्थ के लिए भिक्षु शब्द उपयुक्त है। जीवन के उत्कृष्टतम आदर्श को लक्ष्य में रखकर यहां पर 'भिक्षु' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसलिए किसी प्रकार की जघन्य आकांक्षाओं से प्रेरित न होकर किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट न देकर तथा किसी भी गृहस्थ के लिए किसी भी प्रकार से भारभूत न होकर, केवल शरीर -यात्रा के निर्वाहार्थ निर्दोष आहार की भिक्षा लेने वाले साधु पुरुष को ही भिक्षु कहते हैं। यति, संयमी, मुनि और संन्यासी आदि इसी के पर्यायवाची शब्द अथवा नामान्तर हैं ।
अनगार और भिक्षु शब्द की सार्थकता - अनगार और भिक्षु ये दोनों शब्द यद्यपि एक ही अर्थ के बोधक हैं, तथापि मूल गाथा में इन दोनों का एक साथ प्रयोग करने का तात्पर्य यह है कि लोक में अनेक साधु महात्मा ऐसे भी दृष्टिगोचर होते हैं जोकि अनगार होते हुए भी भिक्षावृत्ति का पालन नहीं करते तथा ऐसे भिक्षुओं की संख्या भी कुछ कम नहीं है जोकि स्थानधारी होने पर भी सदा भिक्षावृत्ति से ही जीवन-यात्रा करते हैं, परन्तु शास्त्रकारों को ऐसा आचरण इष्ट नहीं है। शास्त्रकारों की सम्मति में तो साधु के लिये अनगार होने पर भिक्षु होना और भिक्षु वृत्ति का आलम्बन ग्रहण करने पर अनगार होना अनिवार्य है। इसीलिये उक्त गाथा में इन दोनों शब्दों की एक साथ योजना की गई है जो कि सर्वथा सार्थक है।
क्रियापद — उक्त गाथा में वर्तमान काल की क्रिया का प्रयोग न करते हुए 'करिस्सामि' इस भविष्यत्कालीन क्रिया का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञोक्त वाणी तो अनन्तविध अर्थों का प्रतिपादन करने वाली है और उनके अतिनिकटवर्ती शिष्य गणधरादि देव छद्मस्थ हैं। इसलिए वे सर्वज्ञ देव के कहे हुए सम्पूर्ण अर्थों का तो वर्णन नहीं कर सकते, किन्तु अपनी शक्ि के अनुसार उसके वर्णन की चेष्टा करते हैं। बस इसी भाव को व्यक्त करने के लिए भविष्यत्कालीन क्रिया का प्रयोग किया गया है, अर्थात् ग्रन्थकार गणधरदेव का यह वचन है कि मैं यथाशक्ति सर्वज्ञदेव के कहे हुए अर्थों का प्रतिपादन करने की चेष्टा करूंगा, न कि सम्पूर्णतया उन अर्थों के
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 58 / विणयसुयं पढमं अज्झणं